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________________ तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के प्राचार्य विद्वान और कवि ४२७ 'छेदपिण्ड' है। जो ३३३ गाथा को सख्या का लिए हुए है। प्रस्तुत ग्रन्थ का विपय प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त-विषयक यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण कृति है। प्रायश्चित्त, छद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य पवित्र, अोर पावन ये सब उसके पर्यायवाची नामान्तर है ' । इममे सन्देह नहो कि प्रायश्चित्त स चित्त शुद्धि होती है। अोर चित्त शुद्धि प्रान्म विकास में निमित्त है। चित्तगद्धि के बिना प्रात्मा गनिमलता नहो पाती। अत प्रात्म विकास क इच्छुक मुमुक्ष जनो को प्रायश्चित्त करना उपयोगी है, ज्ञानी को आत्म निरीक्षण करते हुए अपने दोपा या अपराधो के प्रति मावधान होना पड़ता है। अन्यथा दोपा का उच्छेद सम्भव नही है। किम दोप का क्या प्रायश्चित्त विाहत हे यही इस ग्रन्थ का विषय है। जिसका कथन अनेक परिभापायो अोर व्याख्याओ द्वारा दिया है। इन्दनन्दो ने यह ग्रन्थ मूनि, प्रायिका, थावक, श्राविकारूप चतुर्विध सघ ओर ब्राह्मण-क्षत्रिय-वश्य-प्रार शूद्ररूप चारो वर्ण के मभी स्त्रा-पूषा को लक्ष्य करके लिखा गया है। सभी से बन पड़ने वाले दापो का अपराधी के प्रकार का--भागमादि विहित तपश्चरणादिरूप शोधनो का- ग्रन्थ में निर्देश किया गया है। छेद शास्त्र के साथ इसकी तुलना करने से ऐसा जान पटना है कि एक दूसरे के सामने ये ग्रन्थ रहे है। छेद शास्त्र के कर्ता का नाम अज्ञात है । छेदशास्त्र की २-३ गाथाए छेदपिण्ड में प्रक्षिप्त है । क्योकि वहा उनका होना उपयुक्त नही है। छापण्ड की दूसरी प्रतियो मे वे नही पाई जाती। अतएव व वहा प्रक्षिप्त है। कुछ गाथाना में समानता भी पाई जाती है। इस कारण मेरी राय में छेदपिण्ड के कर्ता के सामने छेदशास्त्र अवश्य रहा है। छेदपिण्ड व्यवस्थित स्वतत्र कृति मालम होती है। इन्द्रनन्दी ने अपने को गणी और योगीन्द्र विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इन्द्रनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए है : प्रथम इन्द्रनन्दी व है, जा बासवनन्दी के गरु थे। दूसरे इन्द्रनन्दी व है जो वासवनन्दी के प्रशिष्य पार बलनन्दी के शिप्य थे, और जिन्होंने शक म०८६१ (वि० स०६६६) में ज्वालामालिनी कल्प की रचना की है। सम्भवत. गोम्मटसार के कर्मा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के भी गुरु यही जान पडते है। तीसरे इन्द्रनन्दी श्रतावतार के कर्ता है । इनका समय निश्चित नही है। चौथे इन्द्रनन्दी का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति मे पाया जाता है। जो शक म० १०५० (वि० स०११८५) मे उत्कीर्ग की गई है। पाचवे इन्द्रनन्दी भट्रारक नीतिसार के कर्ता है। यह ग्रन्थ ११३ श्लोकात्मक है। इसमें जिन प्राचार्यों के ग्रन्थ प्रमाण माने जाते है। उनमे श्लोक ७० मे सोमदेवादि के साथ प्रभाचन्द्र पोर नेमिचन्द्र (गोम्मटसार के कर्ता) का भी नामोल्लेख है। इम कारण ये इन्द्रनन्दी उनके बाद के विद्वान है। छठे इन्द्रनन्दी वे है। जिन्होंने श्वेताम्बरी विद्वान हेमचन्द्र के योगशास्त्र की टीका शक स०११८० (वि. स० १३१५) मे बनाई थी ओर जो अमरकीति के शिष्य थे। यह योगशास्त्र टीका कारजा भडार सातवे इन्द्रनन्दी महिता ग्रन्थ के कर्ता है। इन सात इन्द्रनन्दी नाम के विद्वानों में से यह निश्चित करना कठिन है कि कौन से इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड ग्रन्थ के कर्ता है। प० नाथराम जी प्रेमी ने सदिता ग्रन्थ के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता बतलाया है। और मुख्तार सा० ने नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता सूचित किया है। बहत सभव हे नीतिसार क कर्ता हो छेदपिण्ड के कर्ता निश्चित हो जाय। नीतिमार के कर्ता का समय विनम की तेरहवी शताब्दी माना जाता है। इन्होने अपने दैवज्ञ पार कुन्द १. पायछित्त सो ही मलहरण पावागमगं छदो । पज्जाया....। छन्दशास्त्र २. देग्यो, पुगतन वाक्य-मू ची की प्रस्तावना पृ० १०६ ३ दुरित गह-निग्रहाद्भय यदि भो भरि-नरेन्द्र-बन्दिनम् । ननु तेन हि भव्यदेहिना भजत श्री मुनीमिन्दिने ।। -मल्लिपेण प्रगति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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