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________________ ४२६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बालचन्द्र व्रती के शिष्य अर्हनन्दि वेट्टदेव को पार्श्वनाथ वसदि के लिये भूमिदान दिए जाने का उल्लेख है (जैन लेख सं० भा० ४ पृ० १३४) पाँचवें बालचन्द्र वे हैं जो मूलसंध देशीगण पनसोगे शाखा के नयकीति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य अध्यात्मी बालचन्द्र के उपदेश से विम्मिसेटि के पुत्र केसरमेटि ने वेलर में सन् ११८० में मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। (जन लेख सं० भा० ४ पृ० २७०)। छठे बालचन्द्र वे हैं, जो माधवचन्द्र विद्य के गिप्य थे, और कवि कन्दर्प कहलाते थे। इन्होंने शक ११२७, रक्ताक्षी संवत्सर में द्वितीय पौष शुक्ल २ को बेलगाँव के रट्टजिनालय के लिए वीचण द्वारा शुभचन्द्र को दिए जाने वाले लेख को लिखा था। अतएव इनका समय शक ११२७ सन् १२०४ (वि० स० १२६१) है। (जैन लेख सं० भा०४ १०२३६)। इनमें प्रस्तुत बालचन्द्र पण्डितदेव मूलसंघ देशियगण पुस्तक गच्छ कुन्दकून्दान्वय इंगलेश्वर शाखा के थी समृदाय कर माघनन्दि भट्टारक के प्रशिप्य और नेमिचन्द्रभट्टारक के दीक्षित शिष्य थे । और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक उनके श्रुत गुरु थे । ये बलचन्द्र प्रति श्रुतमुनि के अणुव्रत गुम थे श्रुतमुनि ने भी बालचन्द्र मुनि को अभयचन्द्र का शिप्य बतलाया है ___ "सिद्धताऽहयचंदस्स य सिस्सो बालचन्द मुणि पवरो।" (भावसंग्रह) अभयचन्द्र ने स्वयं गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख किया है । इन्होंने द्रव्यमंग्रह की टीका शक सं० ११६५ (वि० म०१३३०) में वनाई थी। बालचन्द्र के सन १२७४ के समाधि लेख में संस्कृत के दो पद्यों में बतलाया है कि वे बालचन्द्र योगीश्वर जयवंत हों, जो जैन आगमरूपी समुद्र के बढाने के लिए चन्द्र, कामके अभिमान के खंडक, और भव्यरूप कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए दिवाकर है, गुणों के सागर, दया के समुद्र, तथा अभयचन्द्र मुनिपति के शिष्योत्तम है. अपनी प्रात्मा में रत हैं । जिन्होंने इस जगत में पूर्वाचार्यों की परम्परा गत जिनस्तोत्र, पागम अध्यात्म शास्त्र रचे, वे अभयेन्दु योगी प्रख्यात शिप्य बालचन्द्र व्रती से जैन धर्म शोभायमान है। यथा श्रीजैनागमवाधिवर्द्धन विधुः कंदर्पदपिहो, भव्याम्भोजदिवाकरो गुरणनिधिः कारुण्यसौधोदधिः। सश्रीमान् प्रभयेन्द्र सन्मुनिपति प्रख्यात शिष्योत्तमो, जीव्यात्....... निजात्मनिरतो बालेन्दु योगीश्वरः ॥ पूर्वाधार्यपरम्परागत जिनस्तोत्रागमाध्यात्मस, च्छास्त्राणि प्रथितानि येन सहसा भवन्निलामंडले । श्रीमन्मान्येभयेन्दुयोगिविबुधप्रख्यातसतसूनुना, बालेन्दुवतियेन तेनलसति श्रीजन|मधुना ।। -(म० मैसूर के प्राचीन स्मारक पृ० २७८) इनबालचन्द्र पण्डित देव की गहस्थ शिप्या मालियक्के थी। प्रस्तुत बालचन्द्र का स्वर्गवास सन् १२७४ में हुआ है। अत: यह बालचन्द्र ईसा की १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण और विक्रम की १४ वी शताब्दी के विद्वान थे। इन्द्र नन्दी इन्द्रनन्दी ने अपनी गुरु परम्परा और ग्रन्थ रचनाकाल आदि का उल्लेख नहीं किया। इनकी एक कृति १. गोम्मटसार जीवकाण्ड कलकत्ता संस्करण पृ० १५० । २. जैन लेख म० भा० ३ पृ. २६६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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