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________________ ४१८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जैन राजवंशों में यह वंश मान्य रहा है। इस वंश के प्रसिद्ध राजा वीर नरसिंह (सन १९५७-१२०८ ई.) के बाद चन्द्रशेखर वग मन (१२०८-१२२४ ई०) जो वीर नरमिह का पुत्र था । इनके छोटे भाई पाण्डेय वंग ने सन् (१२२४. १२३६ ई.) तक राज्य किया। इसके अनंतर पाड्य वग की वहिन रानी बिट्रलदेवी (१२३६-१२४४ ई.) तक राज्य का संचालन किया और उसके बाद उसका पुत्र कामिगय जो पाण्डय वग का भाग्नेय था सन् १२४४ में सिंहासनारूढ हुना। और उसने १२६४ ई० तक राज्य किया। इन्ही कामिराय की प्रेरणा से विजयवर्णो ने शृंगारर्णवचन्द्रिका का निर्माण किया। अलंकार चिन्तामणि-यह अलंकार का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जो जितमेनाचार्य की काव्य लक्षणविपयक धारणा का समन्वयात्मक रूप है। उन्होंने लिखा है कि -'काव्य शब्दालंकार तथा अर्थालंकार मे मुक्त, नवरसों से समन्वित, गैतियों के प्रयोग से मनोरम, व्यंग्यादि अर्थों से सम्पन्न, दोष विरहित होना चाहिये । कवि के अनुसार काव्य ग्रथ मे दो वातों का होना आवश्यक है। उभयलोकोपकारी और पुण्यधर्म के प्राप्त करने का साधन । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट हैं : शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलितं रीतिभावाभिरामं । व्यंगाद्यर्थ विदोषं गुणगणकलितं नेतृ सद्वर्णनाढयम । लोकोद्वन्द्वोपकारि स्फुट मिह तनुतात् काव्यमग्र यं सुखार्थो । नानाशास्त्रप्रवीण: कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम् ॥ १-७ इस ग्रन्थ में पांच परिच्छेद है। उनमें प्रथम परिच्छेद की श्लोक मख्या १०६ है, जिनमें कविशिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। दूसरे परिच्छेद में शब्दालंकारों के चित्र वक्रोक्ति, अनुप्रास अोर यमकालकार ये चार भेद बतलाये हैं। उनमें चित्रलकार का विशंप वर्णन किया गया है, उसके ४२ भेद बतलाये हैं। इस परिच्छेद के पद्यो की संख्या १८६ है। तीसरे परिच्छेद में चित्रालकार के अतिरिक्त शब्दालकार के अन्य भेद, वक्राक्ति, अनप्रास और यमक के उदाहरण के सहित विश्लेपण किया गया है। इस परिच्छेद की श्लोक संख्या ४१ है। चौथे परिच्छेद में अर्थालकारों के ७० भेदों का विस्तृत वर्णन ३४५ पद्यों द्वारा किया है। साथ में बीचबीच में गद्याश भी निहित है। इस परिच्छेद के प्रारंभ में प्रलंकारों की परिभाषा, गण और उनके भेदा का विस्तत कथन दिया है। पांचवं परिच्छेद में नोरस, चार रीति, दो पाक,-द्राक्षा और शब्द का स्वरूप और भेद लक्षणावनि या नाटकों कभद-प्रभेद आदि काव्य शास्त्र-मम्बन्धि सभी आवश्यक विपयो का चर्चाओं का समाविष्ट किया गया है। इसकी पद्यसख्या ४०६ है। कवि ने अलकारों के उदाहरणों में समन्तभद्र, ज़िनसेन हरिचंद्र, वाग्भट, अर्हदास अोर पीयूष वर्षादि अनेक प्राचार्यो के ग्रथों के पद्यों को उद्धत किया है। इन सब विद्वाना में वाग्भट ११वी शताब्दी क है, ओर मुनिसुव्रत काव्य के कर्ता प्रहंडाम प०अाशाधर जी के सामकालीन है। मुनि सुव्रतकाव्य की रचना सागर धर्मामत स० १२९६ (सन् १२८८) के बाद हुई है। उन्हों ने उनके प्रति बहुत ही प्रादरव्यक्त किया है। इस कारण अजितसेनाचार्य का समय विक्रम की १३वी शताब्दी का उपान्त्य है। श्रीधरसेन के प्राचार्य मनिमेन के शिष्य थे। जो बड़े भारी कवि और नैयायिक थे। नेमिकमार के पत्र । नीमकुमार के पुत्र कवि वाग्भट ने 'काव्यानुशासन' की वृत्ति में पुप्पदन्त के साथ मुनिसेन का उल्लेख किया है और उनकी रचना की ओर भी सकेत किया है- "यत्पुष्पदन्त मुनिसेन मुनीन्द्रमुख्यः पूर्वः कृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सः।" इससे टिका के श्लोक ११ से १८ तक के पद्यों में दिया गया है। यह ग्रंथ डा. V.M १. इस वंश का परिचय शृगारावचन्द्रिका के श्लोक ११ से १८ तक के पद्यों में दिया गया। कलकर्णी द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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