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________________ तेरहवीं और चोदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४१७ लिखकर प्रशंसा की है। इनके उभय कवि विशेषण से मालम होता है कि ये संस्कृत अोर कनदी दोनों भापानी के कवि और ग्रंथकर्ता होंगे, परन्तु अभी तक इनका कोई भी नथ उपलब्ध नही है सौदत्तिके शिलालेखों में जो शक संवत् ११५१ और सन् १२२६ के लिखे हुए हैं और जो गयल एशियाटिक मोसाइटी बाम्बे ब्रांच के जर्नल में मुद्रित हो चुके है। मालूम होता है कि ये रट्टगज कार्तवीर्य के राजगुरु थे। पीर गृहस्थ अवस्था में उसके पुत्र लदमो देव को इन्होने शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों को शिक्षा दी थी । लक्ष्मीदेव के समय में ये उसके सचिव या मत्री भी रहे हैं । यह बड़े ही वीर और पराक्रमी थे । इमलिए इन्होंने शत्रुओं को दबाकर रट्टगज की रक्षा की थी मगन्धवर्ती १२ का शासन लक्ष्मीदेव चतुर्थ की अधीनता में रट्टों के राजगुरु मनिचंद्र देव के द्वारा होता था। इस कारण उन्हें रद्रराज प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि भी प्राप्त हई थी। इनके समयमरदराज के शांतिनाथ, नाग और मसिलकार्जुन भी आमात्य रहे हैं। जो मनिचद्र के सहायक या परामर्गदाताओं में से थे। इससे स्पष्ट है कि मनिचंद्र का गमय शक म० १०५१ सन् १२२६ (वि० सं० १२८६) है । (जैन लेख मं० भा० ३ प० ३२२ से ३२६ तक) अजितसेन इम नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उन सबमें प्रस्तुत अजनमेन मेनगग के विद्वान प्राचार्य प्रार तलू देश के निवामी थे क्योंकि शृंगार मजरी की पूप्पिका मं-"थी मेनगणग्रागण्य तपो लक्ष्मी विगजिना जितमेन देव यतीश्वर विचिनः शृगार मंजरी नामालकागेयम ।"-- मेनगण का अग्रणी बतलाया है। इसमे अजिनमेन मेन गण के विद्वान थे यह मुनिश्चित है । प्राचाय अजितमेन की दो रचनाएं उपलब्ध है। शृगार मजरी और अलंकार चिन्तामणि । शृगार मंजरी- यह छोटा-मा अलकार ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद है, जिनमें सक्षप में ग्म-रीति और अलंकारों का वर्णन है। यह ग्रय अजिनमेनाचार्य ने शीलविभूपणा रानो विट्ठल देवी के पुत्र, 'राय' नाम से ज्यात सोमवंशी जैन गजा कामिराय के पढ़ने के लिये बनाया था जेमा कि उसकी प्रगस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है : राज्ञी विठ्ठल देवीति ख्याता शील विभषणा। तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ॥४६ तद्भुमिपालपाठार्थमुदितेयमलंक्रिया। संक्षपेण बुधाषा पद्धात्रास्ति (') विशोध्यताम् ॥४६ प्रस्तुत कामिगय सोमवशी कदम्बों की एक शाखा वगवंश के नाम से विख्यात है। प० के भजबली शास्त्री के अनुसार दक्षिण कन्नड जिले के तुन्दिप्रदेशान्तर्गत वगवाडि पर इस वग का शामन रहा है । उक्त प्रदेश के १. एक अजितमेन द्रमिल संघ में नन्दि संघ अरुङ्गलान्वय के विद्वान् मुनिय थे। जो मम्मूर्ग शास्त्रों में पारंगत थे। मूडहल्लिका का यह लेख संभवतः (लू• राइस) के अनुमार ११७० ई० का है । दूसरे अजितसेन आर्य मेन के शिष्य थे, बड़े विद्वान्, सौम्यमूर्ति, राज्यमान्य प्रभावशाली वक्ता और बंकापुर विद्यापीठ के प्रधान आचार्य थे । गंगवंशी राजा मानसिंह के गुरु थे। मारसिंह ने बंकापुर में समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। यह चामुण्ड राय के भी गुरु थे, जो मारसिंह के महामात्य और सेनापति थे। गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्न चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्ती गणधर के समान गुग्गी और भुवन गुरु बतलाया है। इनका समय विक्रम की १०वी शताब्दी का है। तीसरे अजितसेन वे हैं जिनका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। उक्त प्रशस्ति शक सं० १०५० में उत्कीर्ण की गई है। उसमें अजितसेन को तार्किक और नया क बतलाया है। इनकी उपाधि वादीभ सिंह थी। चौथे अजितसेन वे हैं । जिनका सन् ११४७ के लेख में उल्लेख है जिनका शिष्य बड़ा सर्दार पौद्धी था। उसका जेष्ठ पुत्र भीमप्पा, भार्या देलब्बा से दो पुत्र हुए। मगनीमेठी, मारीसेट्ठी, मारीमैट्ठी ने दोर समुद्र में एक जिन मन्दिर बनवाया था। अजितसेन नाम के और भी विद्वान हुए हैं, जिनका फिर कभी परिचय लिखा जायगा। २. जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० वीर सेवामन्दिर भा० १, सन् १९४४ पृ०६०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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