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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पंजिका का रचना काल शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला है। कर्म प्रकृति संस्कृत गद्य-यह भी इन्हीं की कृति है, जिसमें संक्षेप में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। द्रव्य कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग ओर प्रदेश भेदों का उल्लेख करते हए मल ज्ञानावरणादि पाठ और उत्तर १४८ प्रकृतियों के स्वरूप ओर भेदा का वर्णन किया है। प्रोर अन्त में पाँच लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का कथन किया है। अन्य इनको क्या कृतियाँ है यह अन्वेषणीय है। यह ईसा का १३ वी शताब्दी के अन्तिम चरण के, प्रोर विक्रम को १४ वी शताब्दो के विद्वान हैं। ___ गोम्मटसार को कनड़ी टीकाकार केशववर्णी इन्ही अभयचन्द्र के शिष्य थे। केशववर्णी ने गोम्मटसार की जीवतत्त्व प्रबोधिका कनड़ावृत्ति भट्टारक धर्मभूषण के आदेशानुसार शक स० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में समाप्त की थी। भानुकोति सिद्धान्तदेव यह मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय काणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान् प्राचार्य पद्मनन्दी के प्रशिष्य और मुनि चन्द्रदेव यमी के शिष्य थे। जो न्याय व्याकरण और काव्यादि शारत्रों में पारगत थे। मन्त्र तत्र में बहुत चतुर थे। वन्दणिका तीर्थ के अधिपति थे जैसा कि तेवर तेप्प के शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है : श्रीमन्मलपदादि-संघ-तिलके श्रीकुन्डकुन्दान्वये, काणूर-नाम-गणोत्स-गत्सशुभगे-भूतिन्त्रिणी काहये। शिष्यः श्री मुनिचन्द्र देव यमिनः सिद्धान्त-पारङ्गयो , जीयाद् वन्दणिका-पुरेश्वरतया श्री भानुकोतिम्मुनिः ॥ इन भानुकीति सिद्धान्त देव को विज्जलदेव की पुत्री अलिया ने शक वर्ष १०८१ के प्रमाथि संवत्सर की पूष शुक्ला चतुर्दशी शुत्रवार को, सन् ११५६ वि० स० १२ १३ में) होन्नेयास के साथ इस सुन्दर मन्दिर को भूमियों का दान दिया था। नागर खण्ड के सामन्न लोक गावुण्ड ने सन् ११७१ ई० (वि० सं० १२२८) में एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया, और उसकी अष्टप्रकारी पूजा के लिये उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान की थी। ___ शक १०६६ (सन् ११७७ ई० वि० स० १२३४) में सङ्क गावुण्ड देकि सेट्टि के साथ मिलकर एलम्बलिल में एक जिनमन्दिर बनवाया और शान्तिनाथ वसदि की मरम्मत तथा मुनियों के आहार दान के लिए उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान दिया। मुनिचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य भानूकीति सिद्धान्त देव को राजा एक्कल ने कनकजिनालय के साथ-साथ चालुक्य चक्री जगदेव राजा के राज्य में राजा एक्कल ने सन् ११३६ (वि० सं० ११६६) में भूमिदान दिया । इन सब उल्लेखो से ज्ञात होता है कि भानुकीर्ति सिद्धान्तदेव उस समय प्रसिद्ध विद्वान् थे । यह ईसा की १२वीं और विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान थे। मुनिचन्द्र मुनिचंद्र गुणवमं द्वितीय के शिष्य थे । इन्होंने अपने पुष्पदन्त पुराण' में उभय कवि कमलगर्ग कहकर स्मरण किया है और महाबलि कवि (१२५४) ने नेमिनाथ पुराण में-'अखिल तर्क तंत्र मंत्र व्याकरण भरत काव्य नाटक प्रवीण' १.जैन लेख संग्रह अ० ३ पृ० ११७ २. जैन लेख सं० भा०३ पृ० १५२ ३. वही भा० ३ पृ० १७० ४. जैन लेख सं० अ०३ पृ० ३१-३२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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