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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि ४१५ जनकवि का स्मरण किया है। और मल्लिकार्जुन ने सूक्तिसुधार्णव में शान्तीश्वर चरित के पद्य उद्धृत किए हैं। इस कारण इसका समय भी सन् १२३५ ई० के लगभग जान पड़ता है । अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंघ, देशिय गण, पुस्तक गच्छ कुन्दकुन्दाव्यय की इंगलेश्वरीय शाखा के श्रीसमुदाय में माघनन्दि भट्टरक हुए । उनके दो शिष्य थे, नेमिचन्द्र भट्टारक और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक । प्रस्तुत अभयचन्द्र सैद्धान्तिक बालचन्द्र पण्डित देव के श्रत गुरु थे' गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में प्रभयन्द्र ने बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख | किया है । अभयचन्द्र सूरि छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, कलकार और प्रमाण शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे । श्रत मुनि ने अभयचन्द्र मैद्धातिक को भावसंग्रह में शब्दागम, परमागम, और तर्कागम का ज्ञाता, और सब वादियों वो जीतने वाला बतलाया है'। इन सब उल्लेखों से प्रभयचन्द्र के व्यक्तित्व का आभास मिलता है । प्रस्तुत अभयचन्द्र और बालचन्द्र वही है जिनकी प्रशंसा वेल्लूर के शिलालेखा में की गई है। इनका स्वर्गवास शक वर्ष १२०१ सं० १२७६ में हुआ है । अतः अभयचन्द्र ईसा की १३वीं सदी के विद्वान हैं । गोम्मट सार की कनड़ी टीका के कर्ता के शववर्णी इन्ही अभयचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी कनड़ी टीका भ० धर्मभूषण की आज्ञानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में की है । रचनाएँ प्रस्तुत अभयचन्द्र दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। इन्होंने अकलंक देव के 'लघीयस्त्रय' की 'स्याद्वाद भषण' नामक तात्पर्य वृत्ति के प्रारम्भ में जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में अकलंक और अनन्तवीर्य का नामोल्लेख किया है । प्रस्तुत अभयचन्द्र ने आचार्य प्रभाचन्द्र के न्याय कुमुदचन्द्र को देखकर उक्त वृत्ति बनाई थी। जैसा कि उनके 'अकलंक प्रभा व्यक्तम्' वाक्य से जान पड़ता है। यह प्रभाचन्द्र के बाद के विद्वान इनकी बनाई हुई गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका ३८३ गाथा तक ही उपलब्ध है । इस टीका में गोम्मटसार पंजिका टीका का उल्लेख निम्न शब्दों में है। : "अथवा सम्मूर्छन गर्भोपपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिका कारादीनामभिप्रायः । " ( गो० जी० मन्द प्र० टीका गा० ८३) । इस पंजिका टीका की १ प्रति उपलब्ध है । इस पंजिका के कर्ता गिरिकीति हैं । यह पंजिका गोम्मटसार की रचना से सौ वर्ष बाद बनी है। जैसा कि उसकी निम्न प्रशस्ति गाथा से स्पष्ट है। -- सोलहस हियसहस्से गयसककालेपवड्डूमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कत्तियणंदीसरे एसा ॥ १. जैन शिलालेख सं० भा० ३ लेख ५२४ पृ० ३७१ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड टीका कलकत्ता संस्करण पृ० १५० ३. छन्दो - न्याय निघण्टु-शब्द- समयालङ्कार पट्खण्डवाग्भूचक्रं विवृतं जिनेन्द्र हिमवजात प्रमाणद्वयी । गङ्गा-सिन्धु-युगेन- दुमंत खगोर्वी भृद्भिदा यत् स्वधीचक्राकान्त मतोऽभयेन्दु-यतिपः सिद्धान्तचक्राधिपः । जैनलेख सं० भा० ३ ले० ५२४ पृ० ३७१ ४. सद्दागम-परमागम-तक्कागम निरवमेस वेदी हु । विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरिसिद्धंती ॥ ५. एपिग्राफिया कटिका जिल्द ५ संख्या १३१-३३ ६. जैन लेख सं० भा० ३ लेख नं० ५२४ पृ० ३७१ - भावसंग्रह प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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