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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रवक्ष्ये' वाक्य द्वारा प्रमाप्रमेय ग्रन्थ को बनाने की प्रतिज्ञा की गई हैं । किन्तु अन्तिम पुष्पिका वाक्य में इमे सिद्धांतसार मोक्ष शास्त्र का पहला प्रकरण बतलाया है: -' इति परवादिगिरि सुरेश्वर श्रीमद् भावमेन त्रेविद्यदेव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्ष शास्त्रे प्रमाण निरूपणः प्रथमः परिच्छेदः । ये दोनों ग्रन्थकर्ता को दार्शनिक कृति हैं । और दोनों ही ग्रन्थ डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा सम्पादित होकर 'जीवराज ग्रन्थमाला' शोलापुर से प्रकाशित हो चुके हैं । कातंत्ररूपमाला- इसमें शर्ववमांकृत कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों के अनुसार शब्द रूपों की सिद्धि का वर्णन किया गया है । इस ग्रन्थ के प्रथम सन्दर्भ में ५७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धित का वर्णन है । और दूसरे सन्दर्भ में ८०६ सूत्रों द्वारा तिङ्गन्त व कृदन्त का वर्णन है । ४०८ पंडित प्रवर श्राशाधर महाकवि आशाधर विक्रम की १३ वी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। उनके बाद उन जैसा प्रतिभाशाली बहुश्रुत विद्वान ग्रन्थकर्ता और जैनधर्म का उद्योतक दूसरा कवि नही हुग्रा । न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र और वैद्यक आदि विविध विषयों पर उनका असाधारण अधिकार था। उनकी लेखनी अस्खलित, गम्भीर और विषय की स्पष्ट विवेचक है। उनकी प्रतिभा केवल जंन शास्त्रों तक ही सीमित नही थी, प्रत्युत अन्य भारतीय ग्रन्थों का उन्होंने केवल अध्ययन ही नही किया था, किन्तु 'ग्रप्टांग हृदय' काव्यालंकार और अमरकोश जैसे ग्रन्थों पर उन्होंने टीकाएं भी रची थी । किन्तु खेद है कि वे टीकाएं ग्रव उपलब्ध नही हैं | मालवपति अर्जुनवर्मा के राजगुरु बालसरस्वती कवि मदन ने उनके समीप काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था । और विन्ध्य वर्मा के सन्धि विग्रहिक मन्त्री बिल्हण कवीश ने उनकी प्रगमा की है। उन्हें महा विद्वान यतिपति मदन कीर्तिने 'प्रज्ञापुंज' कहा है और उदयमेन मुनि ने जिनका 'नयविश्वचक्षु' 'काव्यामृतीघ रसपान सुतृप्त गात्र' तथा 'कलिकालिदास' जैसे विशेषण पदों से ग्रभिनन्दन किया है । ओर विन्ध्यवर्मा राजा के महासन्धि विग्रहिक मन्त्री (परराष्ट्र सचिव) कवीश विल्हण ने जिन की एकश्लोक द्वारा 'सरस्वती पुत्र' आदि के रूप में प्रशंसा को है । यह सब सम्मान उनकी उदारता और विशाल विद्वत्ता के कारण प्राप्त हुआ है । उस समय उनके पास अनेक मुनियों विद्वानों, भट्टारकों ने अध्ययन किया है। वादीन्द्र विद्यालकीर्ति को उन्होंने न्यायशास्त्र का अध्ययन कराया था, और भट्टारक विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। ओर अनेक व्यक्तियों को विद्याध्ययन कराकर उनके ज्ञान का विकास किया था । उनकी कृतियों का ध्यान में समीक्षण करने पर उनके विशाल पाण्डित्य का सहज ही पता चल जाता है । उनकी अनगार धर्मामत की टीका इस बात की प्रतीक है। उसमें ज्ञात होता है कि पण्डित आशाधर जी ने उपलब्ध जैन जैनेनर साहित्य का गारा अध्ययन किया था। वे अपने समय के उद्भट विद्वान थे, प्रोर उनका व्यक्तित्व महान था । और राज्य मान विद्वान थे । I जन्मभूमि श्रौर वंश परिचय पं० प्रशाधर और उनका परिवार मूलतः मांडलगढ़ (मेवाड़) के निवासी था । श्राशाधर का जन्म वहीं हुआ था । अतः आशाधर की जन्मभूमि मांडलगढ़ थी। वहां वे अपने जीवन के दश-पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे कि सन् १२९२ (वि० सं० १२४६ ) में शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वीराज को कैदकर दिल्ली को अपनी राजधामी बनाया, और अजमेर पर अधिकार किया। नव गोरी के आक्रमण से संत्रस्त हो और चारित्र की रक्षा के लिए वे सपरिकर बहुत लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में श्रावसे थे । उस समय धारा नगरी मालवराज्य १. आगाधर त्वं मयि विद्धि सिद्ध निसर्गसौन्दर्य मजर्य मायं । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाचमयं प्रपञ्चः ||६ २. म्लेच्छेशेन सरादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षनित्रासाद्विन्ध्यनरेन्ददोः परिमलम्फूर्जस्त्रिवर्गोजसि । प्राप्तो मालव मण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन्, यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रं महावीरतः ॥५ - अनगारधर्मामृतप्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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