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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, चाचार्य और कवि ४०७ प्रति मेरा अनुग्रह रहता है, समानों के प्रति सौजन्य, प्रौर श्रेष्ठों के प्रति सन्मान का व्यवहार किया जाता है किन्तु जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत होकर स्पर्धा करते हैं। उनके गर्वरूपी पर्वत के लिए मेरे वचन वज्र के समान होते हैं। क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, संमानंऽनुतभावसेन मुनिपे विद्यदेवे मयि । सिद्धान्तोऽथ मयापि यः स्वधिषणा गर्वोद्धतः केवलं, संस्पर्धेत तदीयगर्वकुधरे वजापते मद्वचः ।। इनकी कृतियों की पुष्पिकाओं और अन्तिम पद्यों में, परवादिगिरि सुरेश्वर, बादिपर्वत वज्रभृत् वाक्यों का उल्लेख मिलता है जिनमे उनके तर्कशास्त्र में निष्णात विद्वान होने की सूचना मिलती है यथा भावसेन त्रिविद्यार्यो वादिपर्वतवनभत सिद्धान्तसार शास्त्रऽस्मिन प्रमाणं प्रत्ययोपदत् ॥१०२ इति परवादिगिरि सुरेश्वर श्रीमद् भावसेन त्रैविद्य देव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्रे प्रमाणनिरूपणं नाम प्रथमः परिच्छेदः॥ कातंत्र रूपमाला के अन्त में भी उन्होंने 'विद्य और वादिपर्वत वज्रिणा उपाधि का उल्लेख किया है: भावसेन विद्येन वादिपर्वत वज्रिणा। कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यतः ।। समय भावसेन त्रैविध का अमरापुर गांव के निकट, जो आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में निम्न समाधिलेख अंकित है। "श्री मूलसंघ सेनगणद वादिगिरि वज्रदंडमप्प । भावसेनत्र विद्यचक्रवतिय निषिधिः ॥" इस लेख की लिपि तेरहवीं सदी के अधिक अनुकूल वतलाई जाती है। यदि यह लिपि काल ठीक है तो ईसा की १३वी शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए। डॉ० विद्याधर जोहरापूरकर ने लिखा है कि वेद प्रामाण्य की चर्चा में भावसेन ने 'तुरुष्क शास्त्र' को (पृ० ८० और १८ में) बहुजन सम्मत कहा है। दक्षिण भारत में मुस्लिम सत्ता का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ है। अलाउद्दीन ने सन् १२६६ (वि०१३५३) से १३१५ (वि० स० १३७२) तक १६ वर्ष राज्य किया है। इससे भी भावसेन ईसा की १३वी के उपान्त्य में और विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान थे। ऐसा जान पड़ता है। रचनाएं डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर ने 'विश्वतत्त्व प्रकाश' की प्रस्तावना में भावसेन की दश रचनाएँ बतलाई हैं-विश्वतत्त्व प्रकाश, प्रमाप्रमेय, कथा विचार, शाकटायन व्याकरण टीका, कातन्त्ररूपमाला, न्याय सूर्यावली, भुक्ति मक्तिविचार, सिद्धान्तसार, न्यायदीपिका और सप्त पदार्थी टीका। ये रचनाएं सामने नहीं हैं। इसलिए इन सब के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं हैं । यहां उनकी तीन रचनामों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। विश्वतत्व प्रकाश मालूम होता है यह गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थविषयक मंगल पद्य के 'ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां' वाक्य पर विस्तत विचार किया है, इसीसे पुष्पिका में 'मोक्षशास्त्र विश्वतत्त्व प्रकाशे' रूप में उल्लेख किया है, और यह ग्रन्थ उसका प्रथम परिच्छेद है । इससे स्पष्ट जाना जाता है कि लेखक ने तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर विशाल ग्रन्थ लिखने का प्रयास किया था। इसके अन्य पच्छेिद लिखे गये या नहीं कुछ मालूम नहीं होता। प्रमा प्रमय-यह ग्रन्थ भी दार्शनिक चर्चा से ओत-प्रोत है। इसके मंगल पद्य में तो 'प्रमा प्रमेयं प्रकटं
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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