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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कीर्ति अन्त में प्राशाधर की सूक्तियों के प्रभाव से प्रहंदास बन गये हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि आँखें और मन दोनों ही राग भाव में कारण है। तो जब हृदय मन और नेत्र सभी स्वच्छ हो गये--रागरूपी अंजन ज्ञानार्जन से धुल गया और आत्मा अर्हन्त का दास बन गया। यह सब कथन कुपथ से सन्मार्ग में आने की घटना का संद्योतक है। प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इतिहास के पृ० ३५० में लिखा है कि-"इन पद्यों में स्पष्ट ही उनकी सूक्तियां उनके सद्ग्रन्थों का ही संकेत है जिनके द्वारा अर्हद्दास को सन्मार्ग की प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिप्यत्व का नहीं। हां, चतुर्विति-प्रवन्ध की पूर्वोक्त कथा को पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करने को जी अवश्य होता है कि कही मदनकीति ही तो कुमार्ग में ठोकरे खाते-खाते अन्त में प्राशाधर की सूक्तियों से अहंद्दास न बन गये हों। पूर्वोक्त ग्रन्थों में जो भाव व्यक्त किये गए है, उनसे तो इस कल्पना को बहुत पुष्टि मिलती है।" इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है। भावसेन विद्य भावमेन नाम के तीन विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनमें एक भावसेन काष्ठासंघ लाडवागड गच्छ के विदान गोपसेन के शिष्य और जयसेन के गुरु थे। जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' नामक सस्कृत ग्रन्थ विक्रम संवत् १०५५ (सन् १९८) में समाप्त किया था । अतः ये भावमेन विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान है। दूसरे भावमेन भी काप्ठासंघ माथुरगच्छ के प्राचार्य थे। यह धर्मसेन के शिप्य और सहस्रकीति के गुरु थे। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है। इन दोनों भावसेना से प्रस्तुत भावसेन विद्य भिन्न हैं। यह दक्षिण भारत के विद्वान थे। यह मलसघ सेन गण के विद्वान आचार्य थे। और श्रविद्य को उपाधि से अलंकृत थे। यह उपाधि उन मानों को दी जाती थी, जो शब्दागम, नागम और परमागम में निपुण होते थे । सेनगण की पदावली में इनका लेख निम्न प्रकार है:-'परम शब्द ब्रह्म स्वरूप त्रिविद्याधिप परवादि पर्वतवज्रदण्ड श्री भावसेन भट्टारकाणाम (जैन सि० भा० वर्ष ११०३८) भावसेन त्रविद्य देव अपने समय के प्रभावशाली विद्वान ज्ञात होते है । इन्होंने अपनी रचनाओं में स्वयं त्रविद्य रवाहि पर्वत वज्रिणा उपाधियो का उल्लेख किया है, जिससे यह व्याकरण के साथ दर्शनशास्त्र के विशिष्ट जान पडते है। इसीलिए वे वादिरूपी पर्वतो के लिये वज्र के समान थे। इनकी रचनाए भी व्याकरण ओर दर्शनशास्त्र पर उपलब्ध है। विश्वतत्व प्रकाश की प्रशस्ति क ५व पद्य म अपने को पटतर्क, शब्दशास्त्र, अशेष गटांत, वैद्यक, कवित्व सगीत और नाटक आदि का भी विद्वान सूचित किया है। यथा-षटतर्क शब्दशास्त्रं स्वपरमतगताशेषराद्धान्तपक्षः वैद्यं वाक्य विलेख्यं विषमसमविभद प्रयुक्तं कवित्वम् । संगीत सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटकं वेत्सि सम्यग, विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनी भावसेनव्रतीन्द्रम् ॥५ भावनेन विद्य ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध में विश्वतत्त्व प्रकाश के अन्त में लिखा है कि-'दर्बलो के १. वाणेन्द्रिय व्योम सोममिते संवत्सरे शुभे । १०५५ । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सबली कर हाट के॥ -धर्म रत्नाकर प्रशस्ति २. श्रवण वेलगोल के सन् १११५ के शिलालेखों में मेघचन्द विद्य को, सिद्धान्त में बीरसेन षट्तक में अकलंक देव और व्याकरण में पूज्यपाद के समान बतलाया हैं। और नरेन्द कीर्ति विद्य को भी- 'तर्क व्याकरण-सिद्धान्ता म्बुरुहवन दिन कर मेदसिद श्रीमन् नरेन्दकीति विद्य देवर,' नाम से उल्लेख किया है। जैन लेख सं०भा० ३ पु०६२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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