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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४०५ है कि एक बार मदन कीति गुरु के निषेध करने पर भी वे दक्षिणा पथ को प्रयाण करके कर्नाटक पहंचे । वहा विद्वप्रिय विजयपूर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। ग्रार उन्हाने उनसे अपने पूर्वजो के चरित पर एक ग्रन्थ की रचना करने के लिए कहा । कुन्ती भाज की कन्या मदन मजरी माविका थी। मदन कोनि पद्य रचना करते जाते थे और मदन मजरी पर्दे का प्राड में बैठकर उसे लिखता जाता थी। कुछ समय बाद उन दाना के मध्य प्रेम का आविर्भाव हुआ, और वे एक दूसरे को चाहने लगे। राजा का जा सका न च ना ता उमो मदनकानि के वध करने की आज्ञा दे दी। परन्तु जब तक कन्या भी उनके लिए अपना मटेलिया क मामले के लिए तैयार हो गई, तब राजा ने लाचर हा उन दोना को विवाह मुत्र वाघ दिया। मदनकोति अन्नातक गहम्य ही रहे, गुरु वादीन्द्र विशाल कीर्ति के पत्रों द्वाग बार-बार प्रद्ध किये जाने पर भी प्रयुद्ध नही दा। तय विगाल कीति स्वय भी दक्षिण की ओर अपने शिप्प का प्रवुद्ध करन के नए गए। प्रार काल्हापुर प्रान्त जी का' नामक ग्राम में गए, वहाँ मुनि सोमदेव ने वादीन्द्र विशालकीति की वेयावत्य में 'शब्दार्णव' को 'चन्द्रिका' नाम का वत्ति शक स० ११२७ (वि. १२६२) में बनाई थी। सभवतः वे अन्त समय में पढित अागाधर जो की मूक्तियो मे प्रबुद्ध हुए हो। प्रार मुनिसुव्रत काव्यादि प्रशस्ति पद्यो के अनुसार वे अहंदास हा गए हा । कवि अहंदास यह सुनिश्चित ह क काव प्राशाधर के शिष्य नह। थे। व उना समकालान य उनकी जिन वचन रूप सूक्तियों से प्रभावित थे । एका मु.न मुजत काय, पुम्दव चम्पू पार गव्य जन कण्ठाभरण अन्तिम प्रशस्ति पद्या से स्पष्ट प्रतीत होता है। बहुत राभव है कि कवि रागमाव के कारण श्रष्ठ मासच्युत हा गए थे। पार वहत काल भटकने के पश्चात् काललाब्ध वश व भ्रष्टमार्ग से पुन: मन्म।ग म लाट पाय थ। यह बात यथार्थ जान पड़ती है। जैसा कि मुनि सुव्रतकाव्य की प्रशस्ति स प्रकट है : "धावन्कापथ सभते भववने सान्माग मेकं परम् । त्यक्त्वा धान्ततरश्चिराय कथमय्यासाद्य कालादमुम्। सद्धर्मामतमुद्धत जिनवचः क्षीरोदधरादरात, पायं पाय मितः श्रमः सुखपथ दासो भवाम्यहत. ॥६४॥ अर्थात –'तमार्ग गभर हुए ममार रूपा वन में जा एक थष्ठ माग था, उस छोड़कर म बहत काल तक भटकता रहा । अन्त में बहुत थककर कमा तरह काललाब्ध या 37 फिर पाया । सा अव जिन वचनरूप से उद्धत किये हुए धमाभृत का सन्तापपूवक पी-पाकर पार ।वगत श्रम हाकर में अहद् भगवान का दास होता है।' मिथ्यात्व रूप कर्म पटल से बहुत काल तक ढका हुई मेरी दाना प्राय जा कुमाग में ही जाती थी, आशाघर की उक्तियों के विशिष्ट अजन से स्वच्छ हो गइ और इसलिए अब मैं सत्पथ का प्राथयलेता ह। जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट है: मिथ्यात्व कर्मपटलश्चिरमावृते में युग्मे दृशं कुपथयाननिदानभूते। प्राशाधरोक्ति लसदंजन संप्रयोगेरच्छीकृते प्टथल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५।। परुदेव चम्प के अन्त मे कवि ने मिथ्यात्व कर्म रूप पक से गदले अपने मानम को आशाधर की मूक्तियों की निर्मली से स्वच्छ होने का भाव प्रकट किया है। भव्य कण्ठाभरण पजिका में आशाधर की सूक्तियो की बड़ी प्रशसा की गई है । इससे लगता है कि मदन १. मिथ्यात्व पंककलुपे मम मानसंऽग्मिन्नाशाधरोक्ति कत्कप्रसर प्रसन्न । उल्लासितेन शरदा पुरुदेव भक्तया तच्चम्पु दभजलजेन समुज्जजम्भे ।। १ २. सूक्त्यैव तेषा भवभीरवो ये गृहाश्रमस्था श्चरितात्मधर्माः । त एच शेषा श्रमिणां सहाय धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः ।।२३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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