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________________ १० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ मान ने विवाह करने से सर्वथा इनकार कर दिया और विरक्त होकर तप में स्थित हो गये।' इससे राजा जितशत्रु का मनोरथ पूर्ण न हो सका। महावीर के विवाह सम्बन्ध में श्वेताम्बरों की मान्यता इस प्रकार है : श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महावीर के विवाह सम्बन्ध में दो मान्यतायें पाई जाती हैं - विवाहित और अविवाहित। कल्पमूत्र और आवश्यक भाप्य की विवाहित मान्यता है और समवायांग सूत्र, ठाणांगसूत्र, पउमचरिउ तथा प्रावश्यक निर्यक्तिकार द्वितीय भद्रबाह की अविवाहित मान्यता है। यथा-"एगणवीसं तित्थयरा गारवास मज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराप्रो अणगारियं पव्वइया।" (समवायांग मूत्र १६ पृ० ३५) इस मूत्र में १६ तथंकरों का घर में रह कर और भोग भोगकर दीक्षित होना बतलाया गया है। इसमें म्पष्ट है कि शेष पांच तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए हैं। इसी से टीकाकार अभयदेव मुरि ने अपनी वृत्ति में 'शेपास्तु पचकुमारभाव एवेत्याह च' वाक्य के साथ 'वारं अरिट्टनेमि' नाम की दो गाथाएं उद्धन की हैं वीरं रिट्टनेमि पास मल्लि च वासुपुज्जं च। ए ए मोत्तण जिणे अवसेसा पासि रायाणो ।।२२१ रायकुलेसु वि जाया विसुद्धवंसेसु वि खत्ति कुलेसु । न य इच्छियाभिसेया कुमारवासंमि पच्वइया ॥२२२।। - आवश्यक नियुक्ति पत्र १३६ इन गाथाओं में बतलाया गया है कि वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लि और वासुपूज्य इन पाँचों को छोड़कर शेप १६ तीर्थङ्कर गजा हुए थे । ये पांचों तीर्थकर विशुद्ध वंशों, क्षत्रिय कुलों और राजकुलों में उत्पन्न होने पर भी राज्याभिषेक रहित कुमार अवस्था में ही दीक्षित हए थे। आवश्यक निर्यक्ति की २२६ वी गाथा में उक्त पांच तीर्थकरों को 'पढमवए पव्वइया' वाक्य द्वारा प्रथम अवस्था (कुमार काल) में दीक्षित होना बतलाया है। उक्त निर्यक्ति की निम्न गाथा में इस विषय को और भी स्पष्ट किया गया है : गामायारा विसया निसेविया ते कुमारवज्जे हि । गामागराइए सय केसि (स) विहारो भवे कस्स ।२५५ आगमोदय समिति में प्रकाशित आवश्यक नियुक्ति की मलयगिरि टीका में महावीर का नाम छपने से म स्पष्ट रूप से बतलाया है कि पाँच कूमार तीर्थङ्करा का छाड़ कर शष न भोग भोगे हैं। कुमार का अर्थ अविवाहित अवस्था में है। परन्तु कल्पसूत्र की समरवीर राजा की पुत्री यशोदा से विवाह सम्बन्ध होने, उसमे प्रियदर्शना नाम की लड़की के उत्पन्न होने और उसका विवाह जमालि के साथ करने की मान्यता का मूलाधार क्या है यह कुछ मालूम नहीं होता, और न महावीर के दीक्षित होने से पूर्व एवं पश्चात् यशोदा के शेष १ (अ) भवान्न कि श्रेणिक वेत्ति भूपति नपेन्द्रमिद्धार्थकनीयसीपतिम् । इमं गिद्ध जितशत्रमाख्यया प्रतापवन्तं जितशत्रुमण्डलम् ॥६॥ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे तदागतः कुण्डपुर सुहृत्परः । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता नृपोऽप्रमाखण्डलतुल्यविक्रमः ॥७॥ यशोदयाया सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमंगलम् । अनेककन्यापरिवारयारुहत्समीक्षित तुगमनोरथं तदा ॥८॥ स्थिते ऽथ नाथे तपसि स्वयंभूवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षिति क्षिति विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥६॥ -हरिवंश पुराण, जिनसेनाचार्य, पर्व ६६ (प्रा) प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोय पण्पत्ती' को 'वीर परितुनेमि' नामक गाथा में वासुपूज्य, मल्लि, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ वर्द्धमान को भी पांच बालयति तीर्थंकरों में गणना की है, जिन्होंने कुमार अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण को थी। इस सम्बन्ध में दिगम्बर सम्प्रदाय की एक ही मान्यता है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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