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________________ बैराग्य और दीक्षा जीवन अथवा उसकी मृत्यु आदि के सम्बन्ध मे ही कोई उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्य में उपलब्ध होता है, जिससे यह कल्पना भी निष्प्राण एवं निराधार जान पडती है कि यशोदा अल्पजीवी थी, और वह भगवान महावीर के दीक्षित होने से पूर्व ही दिवगत हो चुकी थी। अत उमको मृत्यु के बाद भगवान महावीर ब्रह्मचारी रहने से ब्रह्मचारी के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। कुमार वर्द्धमान अपना प्रात्म-विकास करते हुए जगत का कल्याण करना चाहते थे। इसी कारण उन्हे सासारिक भोग और उपभोग अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य-वैभव में पले पोर रह रहे थे, किन्तु वे जल मे कमलवत रहते हा उमे एक कारागृह हो समझ रहे थे। उनका अन्त करण सामारिक भोगाकाक्षाओ से विरक्त अोर लोक-कल्याण की भावना मे प्रोत-प्रोत था । अत विवाह-मम्बन्ध की चर्चा होने पर उमे अस्वीकार करना समुचित ही था। कुमार वर्तमान स्वभावत ही वैराग्यगील थे। उनका अन्त.करण प्रशान्त और दया मे भरपूर था, वे दीन-दुखियो के दुखो का अन्न करना चाहते थे। इस समय उनकी अवस्था २८ वर्ष ७ माह और १२ दिन की हो चको थो।' प्रत आत्मोन्कर्प की भावना निरन्तर बढ रहो थो, जो अन्तिम ध्येय की माधिका ही नहीं, किन्तु उसके मूर्त रूप होने का सच्चा प्रतीक थी। अत भगवान महावीर ने दादश भावनायो वा चिन्तन करते हुए समार का अनित्य एव अगरणादिरूप अनुभव किया। उन्हे सासारिक वैभव की अस्थिरता एव विनश्वरता का स्वरूप प्रतिभामित हो रहा था और अन्त करण को वत्ति उसमे उदामीन हो रही थी। अत उन्होने राज्य-विभूति को छोड कर जिन-दोक्षा लेने का दृढ सकल्प किया। उनकी लोकोपकारी इस भावना का लोकान्तिक देवो ने अभिनन्दन किया। भगवान महावीर चन्द्रप्रभा नाम की शिविका (पालकी) मे बैठ कर नगर में बाहर निकले और ज्ञात खण्ड नाम के वन मे मार्गशिर कृष्णा दशमी के दिन अपगह मे जबकि चन्द्रमा हस्तोत्तरा नक्षत्र के मध्य में स्थित था, पाठोपवाम से दीक्षा ग्रहण की। व मिद्ध परमेष्ठियो को नमस्कार कर अगोक वक्ष के नीचे शिलामन पर उत्तर दिशा की ओर मुख कर विराजमान.हए । सर्व वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर-बहमुत्य वस्त्राभूपणो को उतार कर फक दिया और पच मुष्टियो में अपने केशो का लौच कर डाला। इस तरह भगवान महावीर ने दिगम्बर मुद्रा धारण की और प्रात्मध्यान मे तन्मय हो गए। दीक्षा लेते ही उन्हे मन.पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उपवास की परिसमाप्ति पर जब वे पारणा के लिए वन से निकले और विद्याधरो के नगर के ममान सुशोभित कुलग्राम की नगरी (वर्तमान करि ग्राम) में पहुंचे, वहाँ कुल नाम के राजा ने भक्तिभाव में उनके दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणाएं दी, ओर चरणो मे सिर झका कर नमस्कार किया, उनकी पूजा की और मन, वचन काय की शुद्धिपूर्वक नवधाभक्ति से परमान्न (वीर) का आहार दिया। दान के प्रानुषङ्गिक फलस्वरूप उस राजा के घर पंचाश्चर्यो की वर्षा हुई । आहार लेकर वर्द्धमान पुन तप मे स्थित हो गए और आत्म-साधना के लिये कठोर तप का आचरण करने लगे। वे निर्जन एवं दुरूह बनो मे विहार १ मणवयत्तगणहमतुलं देवक्य सेविऊण वामाई। अट्टाबीस सन य मामे दिवमे य गारसय ।। प्राभिरिणबोहियबुद्धो छ?ण य मग्गामीसबहुलाए। दसमीए गिक्वतो सुरमहिदो रिणक्खमणे पुज्जो ।। -जयधवला भा०१पृ० ७८ २ नानाविधरूपचिता विचित्रकूटोच्छिता मरिणविभूषाम् । चन्द्रप्रभाख्य शिविकामारुह्य पुगद्विनिष्क्रान्त ।८॥ मार्गशिरकृष्णदशमी हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते सोमे। षष्ठेन त्वपराण्हे भवतेन जिन प्रवव्राज ॥६॥ -निर्वाण भक्ति पूज्यपाद ३. देखो उत्तर पुरण पर्व ७४ श्लोक ३१८ से ३२१
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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