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________________ वैगग्य और दीक्षा का रूप धारण कर उस वृक्ष की जड़ से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया । सब बालक उसे देखकर भय से काप उठे और शीघ्र ही डालियों पर से नीचे कूद कर भागने लगे। परन्तु राजकुमार वर्द्धमान के हृदय में जग भी भय का संचार न हया । वे उसके विशाल फण पर चढ़कर उममे क्रीडा करने लगे। मर्प का रूप धारण करने वाला सगम देव उनकी वीरता और निर्भयता को देखकर विम्मित हुया पोर अपना असली रूप प्रकट कर उन्हे नमस्कार किया, स्तुति की और उनका नाम 'महावीर' रक्खा । महाकवि धनजय ने नाममाला में भगवान महावीर के मन्मति, अतिवीर, महावीर, अन्त्यकाश्यप, नाथान्वय और वर्द्धमान नामो का उल्लेख किया है और बतलाया है कि इस समय उन्ही का शासन प्रचलित है। भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था। उनके तेज पुज में वैशाली का गज्य-शासन चमक उठा था। उस समय वैशाली और कुण्डपुर की शोभा द्विगुणित हो गई थी और वह इन्द्रपुरी मे कम नहीं थी। • वैराग्य और दीक्षा भगवान महावीर का बाल्य-जीवन उत्तरोत्तर युवावस्था में परिणत होता गया। इस अवस्था में भी उनका चित्त भोगो की अोर नही था। यद्यपि उन्हे भोग और उपभोग की वस्तुओं की कमी नही थी, किन्तु उनके अन्तर्मानस में उनके प्रति कोई आकर्पण नही था। वे जल मे कमलवन उनमे निम्पह रहते थे। वे उस काल में होने वाली विपम परिस्थिति में परिचित थे। गज्यकार्य में भी उनका मन नहीं लगता था। राजा सिद्धार्थ ओर माता त्रिशला उन्हे गहस्थ-मार्ग को अपनाने की प्रेरणा करते थे और चाहते थे कि वर्द्धमान का चित्त किमी तरह राज्य-कार्य के संचालन की ओर हो । एक दिन राजा सिद्धार्थ मोर माता त्रिगला ने महावीर को वैवाहिक सम्बन्ध करने के लिए प्रेरित किया। लिग देश का राजा जितशत्रु, जिनके माथ राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन यशोदा का विवाह हामा था, अपनी पुत्री यशोदया के साथ कुमार वर्तमान का विवाह सम्बन्ध करना चाहता था। परन्तु कुमार वर्द्ध १. (अ) उत्तर पगण पर्व ७८ श्लोक २८८ से २६५ (मा) वीर. शूरोध नेन्युक्ति मुगगामिन्द्रसंसदि । श्रुत्वा सङ्गमकोऽन्ये गगतम्त परीक्षितुम् ॥२७॥ दृष्ट्वा क्रीडन्तमुद्यानेऽयमाम्ढो नृपात्मजः । काकपक्षधरै माध मवयोभिर्महाफरणी ॥२८।। भूत्वा वेष्टिताभाम्कन्धादग्थात्तद्भयतोऽग्विलाः । विटपिभ्यो निपत्याग राजपत्रा पलायताः ॥२६ वीरोऽस्थादारा भीष्म मात्रक बदरीरमत् ।' ततः प्रीतो महावीर इत्याम्यां तम्य सव्यधात् ॥३० त्रिपप्ठि स्मृति शास्त्रम् पृ. १५४ २. सन्मति: महतिवीर: महावीरोऽन्त्यक:श्यपः । नाथान्वयः वर्धमानः यत्तीर्थ मिह साम्प्रतम् ।। -धनजय नाममाला
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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