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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ४.४ शतिका नामकी छोटी सी रचना है जिसकी पद्य सख्या ३५ है। जो एक प्रकार से तीर्थ क्षेत्रों का स्तवन है, उनमें पोदनपर के बाहबली, श्रीपूर के पार्श्वनाथ, शंखजिनेश्वर, धारा के पार्श्व जिन, दक्षिण के गोम्मट जिन, नागद्रहजिन, मेदपाट (मेवाड) के नागणिग्राम के मल्लिजिनेश्वर, मालवा के मगलपुर के अभिनन्दन जिन, पुप्पपुर (पटना) के पूष्पदन्त, पश्चिम समुद्र के चन्द्रप्रभ जिन, नर्वदा नदा के जल से अभिपक्त शान्तिाजन पावापुर के वीर जिन, गिरनार क नेमिनाथ, चम्पा क वामपूज्य आदि तीर्या का स्तवन किया गया। स्तवनी में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख प्रकित है आर उमक प्रत्येक पद्य के अन्तिम चरण में दिग्वाससां शासनम' वाक्य द्वारा दिगम्वर शासन का जयघोष किया गया है। मालव देश के मगलपुर में म्लेच्छो क प्रतार का प्रागमन बतलाते हुए लिखा है कि वहा अभिनन्दन जिन की मति को तोड़ दिये जान पर वह पुनः जुड़ गई। इस घटना का उल्नग्य विविध तीर्थ कल्प के पृ०५७ पर अभिनन्दन कल्प नाम से किया गया है। श्री मन्मालवदेश मंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते, भन्नातिरथोभियोजिताशराः सम्पूर्णता माययौ। यस्योपद्रवनाशिनः कलयुगऽनेक प्रभादयं तः, सश्रीमानभिनन्दनः स्थिरयत दिग्वाससा शासनम् ॥३४॥ इस पद्य म जा म्नच्छा क प्रताप क यागमन का बान रखा है वह म०१२४६ के बाद की घटना है। इससे इतना गोर स्पष्ट है कि मदनकात किम का १५ सनाद। विद्वान् आगाधर क समकालीन है। प० पाशाधर ने प्रशस्ति म 'मदन काति यति पा निा वाक्य क साप उनका उल्नख भा किया है। पाश्रम पत्तन में घटित घटना का उल्न मुनि मदनकाति शासन चतुस्विशिका के निम्न २८वे पद्य में किया है। पूर्व या श्रमनाजगामसारता नाथाभ्युदिव्याशिला, तस्या देवगण । द्विजस्य दघतस्तथा ।जनेशः स्वयं । कोपाद्विप्रजनाराधनकरः देवः प्रपूज्याम्बरे, दधे या मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससा शासनम् ॥२८॥ बतलाया है कि जा शला सारता . पह। प्रायम का प्राप्त हु। उस पर देवगणा को धारण करने वाल विप्रो कद्वारा काधवश प्रवरावहान परगा मुनिसुव्रत ।जनस्वर उस पर स्थित हए-वहा से फिर नही हटे. और देवो द्वारा आकाश में पूाजत हुए, व मुनि सुव्रत जिन ! दिगम्बर। क शासन की जय कर। प्राश्रम पत्तन नाम का यह स्थान जा वतमान म कशाराय पाटन क नाम म प्रसिद्ध है। काटा से नो मील टर पार बदी स तीन मील दूर चम्बल नदा क किनार अवास्थत है। यह चम्बल नद। काटा पार बदी की सीमा का विभाजन करता है । इस नदा क किनार मुनिमुव्रतनाथ का चत्यालय है जा तीर्थ स्थान के रूप मप्रसिद नमि चन्द सिद्धान्त दवार ब्रह्मदव यहा रहत य । सामराज श्रष्ठा भावहा पाकर तत्त्व चर्चा का रस लता था। मि. चन्ट सिद्धान्त दवन उक्त साम राजश्रष्ठा क लिए द्रव्य संग्रह (पदाथ लक्षण) की रचना का थो, और ब्रह्मदेव ने उसकी वत्ति बनाई था। इस तीथ की यात्रा करन लिए दूर से यात्री पाते है। राजशेखर सरि (स० १४०५) नअपने चतुविशात प्रबन्ध में लिखा है कि मदन कौति ने चारी दिशाम्रो वादियो को जीतकर उन्होन 'महा प्रामाणिक चड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी। उन्होंने मदन कीति प्रबन्ध में लिखा १. 'अस्सारम्म पट्टण मुनि सुन्वय जिण च वदामि'।-निर्वाणकाण्ड 'मणि सुव्वउ जिण तह आसरम्मि'। मुनि उदयकीर्ति कृत निर्वाण भक्ति २. देखिये, द्रव्य संग्रह की ब्रह्मदेव कृत वृत्ति की उत्थानिका, और द्रव्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार नामका लेखक का लेख । -अनेकान्त वर्ष १६ कि० १.२ पृ० १४५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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