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________________ महाका तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि करते हुए धार्मिक सिद्धांतों का अच्छा कथन किया है। कितु लगता है कि कवि ने वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित्र के धार्मिक कथन को देखा है, दोनों की तुलना करने मे कथन शैली की समानता का आभास मिलता है। ग्रन्थ में गुरु परम्परा का उल्लेख न होने से समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। कवि ने इस ग्रन्थ को हुबड कुलभूषण कुमरसिह के पुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया है, और इसीलिए उसकी प्रत्येक पुष्पिका में सिद्धपाल का नामोल्लेख किया है । जैसा कि उसके निम्न पुप्पिका वाक्य से प्रकट हे: ___ "इयसिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइजसकित्तिविरइए महाभम्वसिद्धपालसवणभूसणे चंदप्पहसामिणिव्वाणगमणवण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छेप्रो समत्तो।" महाकवि ने ग्रन्थ में अपने से की प्राचार्या का उल्लेख करते हुए गाण कुन्दकुन्द, समन्तभद्र देवनन्दि (पूज्यपाद) अकलक और जिनसेन सिद्धमन का उल्लेख करते हुए प्राचार्य समन्तभद्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली घटना द्वारा पाठवे तीर्थकर के स्तात्र की सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ जिनका मूर्ति क प्रकट होने का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है : "णामें समंतभद्दवि मुणिदु, अइणिाम्मलु णं पुण्णमहिचंदु । जिउ रजिउ राया रुद्दकोडि जिण थुत्ति मित्ति सिपिडि फोडि । णीहरिउ बिवुचंदप्पहासु उज्जायतउ फुडु दसदिसासु ।" और अकलंक देव को तारादेवी के मान को दलित करने वाला बतलाया है। "अकलंकुणाइ पच्चक्खणाणु जे तारादेविहि दलिउ माणु। उज्जाल्लिउ सासणु जगपसिद्ध णिद्धाडिउ थल्लिय सयलबुद्धि।" जिनसेन और सिद्धमेन को परवादियो क दर्प का नजक बतलाया है ।। प्रस्तुत ग्रन्थ वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित के बाद वना है। प्रत. इसका रचनाकाल विक्रम की १२वीं या १३वीं शताब्दी हो सकता है। कुछ विद्वानों ने चन्द्रप्रभ के कर्ता यशःकीर्ति और भ० गुणकीति क पट्टधर यश:कीति को नाम साम्य के कारण एक मान लिया है, पर उन्होंने दोनों की कृतियों का ध्यान से सगाक्षण नहा किया, पार न उनके भाषा साहित्य तथा कथन शैली पर ही दष्टि डाली है। विचार करने से दानी यश:ोति भिन्न-भिन्न है। उनमें चन्द्रप्रभ चरित के कर्ता यशःकीति पूर्ववर्ती है, और पाण्डव पुराणादि के कर्ता यशःकोति अर्वाचीन है। पाण्डव पुराणकी पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है : इय पण्डव-पुराणे सयलयण-मण-सवण-सुहयरे सिरिगुणकित्ति-सिस्स-मुणि जसकित्ति विरइए साधु वील्हा पुत्त हेमराज णामंकिए गेमिणाह जुधिटर-भीमाज्जु-ण णिव्वाण गमण नकुल सहदेव-सव्वट्ठसिद्धि बलहद्दपंचम-सग्ग गमण पयासणो णाम चउतीसमो इमो सग्गो समत्तो।" इस पुप्पिका वाक्य के साथ चंदप्पह चरिउ का निम्न पुष्पिका वाक्य की तुलना कीजिए। "इय सिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइजसकित्तिविरइए महाभव्व सिद्धपाल सवणभूसणे चंदप्पह सामि णिव्वाण गमण वण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छेप्रो समत्तो।" दोनों के पुष्पिका वाक्य भिन्नता के द्योतक हैं। पाण्डव पुराण के कर्ता ने अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं किया। हां अपनी भट्टारक परम्परा का अवश्य किया है। मदनकोति अहसास प्रस्तुत मदनकीति वादीन्द्र विशाल कीर्ति के शिष्य थे। और बड़े भारी विद्वान थे। इनकी शासनचतुस्त्रिं १.जिएणसेण सिद्धसेण वि भयत, परवाइ-दप्प-भजण-कयत । -चन्दप्रभ चरिउ प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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