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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ३६६ के शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु था, जो ममम्तजनों का हिताभिलापी था । रामचन्द्र मुमुक्ष ने पद्मनन्दी नामके श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पास में व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर गिरि और समिति के बराबर संख्यावाने सत्तावन पद्यों द्वारा पुण्यास्रव नामक कथा ग्रन्थ की रचना की । प्रस्तुत ग्रन्थ में ५६ कथाएं हैं, जो छह अधिकारों में विभाजित हैं, जिन की श्लोक संख्या साढ़े चार हजार है । प्रथम पांच खण्ड में ग्राठ-आठ कथाएं हैं, और ग्रन्तिम छ खण्ड में १६ कथाएं दी हैं । प्रथम की कथाओं में देवपूजा में अर्हन्तदेव के स्वरूप की बोधक और देवपुजा के महत्व को ख्यापित करनेवाली कथाएं दी हैं, जो पुण्यफल की प्रतिपादक हैं । दूसरे 'ग्राटक मे णमो अरिहंताणं' आदि पत्र नमस्कार मन्त्र के उच्चारण करने वाली और उसके प्रभावको व्यक्त करने वाली ग्राट कथाए दी जिनमे पंच नमस्कार मन्त्रकी महत्ता का बोध होता है, और पुण्यफल की प्राप्ति रूप सद्गतिका लाभ प्रतिपादित किया है। तृतीय अष्टक स्वाध्याय के पुण्य फलकी प्रतिपादक कथाएं दी हैं, जिनमें शास्त्रों के पठन-पाठन, उनके श्रवण और उच्चारण यादि का पुण्य भी निर्दिष्ट है । चौथे अष्टक के दलित के पालकों की पुण्य कथाएं दी हैं। गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नी के प्रति और पत्नी को पति के प्रति पूर्ण शीलवान होना आवश्यक है । पांच अष्टक में उपवास के पुण्यफल की प्रतिपादक कथाएं दी हैं। ओर छठे खण्ड में पावदान के महत्व की प्रतिपादक १६ वथाएं दी है। इन सब कथाओं के अध्ययन में जहां भावविशुद्धि होती है, वहां उनके प्रति आस्था भी उत्पन्न हो जाती है। महा कवि रध ने भी अपभ्रंशभाषा में पुण्यास्रव कथाकोप की रचना की है। ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, शोर न रचनास्थल का ही उल्लेख किया है। कर्नाटक कवि चरित से ज्ञात होता है कि नागराज ने कन्नड़ भाषा में 'पुण्यात्रत्र चम्पू काव्य की रचना शकसंवत् १२५३ (सन् १३३१ में की है जो संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी भाषान्तर है। बहुत सम्भव है कि नागराज ने रामचन्द्र मुमुक्ष के पुण्यात्रत्र का आधार लिया हो। क्योंकि दोनों में अत्यधिक समानता पाई जाती है । इसने रामचन्द्र मुमुक्ष की रचना पूर्ववर्ती है । इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी जान पड़ता है। निश्चित समय तो केशवनन्दी के समय का निश्चय हो जाने पर मालूम हो सकता है । विमलकीति प्रस्तुत विमलकीति रामकीर्ति गुरु के शिष्य थे। रामकीर्ति नाम के चार विद्वानों का उल्लेख मिलता है । उनमें प्रथम रामकीर्ति के शिष्य विमल कीर्ति हैं । दूसरे रामकति मूलसच बलात्कारगण ओर सरस्वती गच्छ के विद्वान थे । इनके शिष्य भ० प्रभाचन्द्र ने स० १४१३ मे वैशाख मुदि १३ बुधवार के दिन अमरावती के चोहान राजा अजयराज के राज्य में बल कंचुकान्वयी श्रावक ने एक जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो वण्डितदशा में भौगांव क मन्दिर की छतपुर रखी हुई है । १. "शिष्योऽभूत्तम्यभव्यः सकल जनहितो रामचन्द्रो मुमुक्ष जत्वा शब्दाशब्दान् सुविगद यशसः पद्मनन्द्याभिधानात् (याद्वै ) । वन्द्याद्वादभ सिंहासरमयतिपतेः मो व्यधाद्भव्यहेतोग्रन्थं पुण्यास्रवाख्यं गिरिममितिमितं दिव्यपद्यः कथायें || २ || — जैन ग्रन्थ प्रशम्ति सं० भा०१ पृ० १५४ २. संवत १४१३ वैशाख मुदि १३ बुधे श्रीमदमवगवती नगराधीश्वर चाहुवारण कुल श्रीअजय राय देव राज्य प्रवर्तमाने मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीराम कीर्तिदेवास्तस्य शिष्य भ० प्रभाचन्द्र लंबकंचु कान्वये साधु भार्मा सोहल तयोः पुत्रः सा० जीवदेव भार्या सुरकी तयोः पुत्रः केशो प्रणमति । - देखो जैन सि० भा. भा. २२ अक ३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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