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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ शककालेशर-सूर्य-चन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके, शुभदे दुदुभिवत्सरेविजयतामाचन्द्रतार भुवि ।। इन्ही भोजगज के राज्यकाल में कोल्हापुर देशान्तवर्ती अजरिका (आजर) नामक गाँव में क्षपणासार गद्य की रचना के दो वर्ष बाद शक स० ११२७ क्रोधन सवत्सर (वि० स० १२६२) में सोमदेव ने शब्दार्णव चन्द्रिका नाम की जैन व्याकरण की वत्ति समाप्त की थी। मुनि विनय चन्द्र यह मलमघ के विद्वान सागरचन्द्र मन न्द्र के शिप्य थे । इन्हे पनि आशाधर जी ने धर्मशास्त्र का अव्ययन कराया था। इन्ही विनयचन्द्र मुनि के अनुरोध मे प्राशाधर जी ने भव्यजना के हितार्थ इष्टोपदेशटाका भूपाल कविकृत च िवशतिका टीका ग्रार देवमेन के आराधनामार की टाका बनाई थी इन में प्रथम दा टीकाए प्रकाशित हो चकी है । विन्नु पागधनामार की टीका उपलब्ध नहीं हुई थी। किन्तु अामेर के शास्त्र भण्डार में मंवत् १५८१ की लिखी हई पागधनामार की टोका उपलब्ध है। टीका अत्यन्त सक्षिप्त हे, जो गाथाओ के गढपदों के अर्थ का बोधकराती है, । जैसा कि उसके मगल पद्य तथा प्रतिज्ञा वाक्य मे स्पष्ट है : प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुटः। अाराधनासारगूढ पदार्थाकथयाम्यहम् ।।५१ "विमलेत्यादि - विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन विमला विमलतरा शुद्धतराः गणा परमावगाढ सम्यनादयः । सिद्ध जीवन मुक्त जगत्प्रतीतं वा। सुरसेन वंदियं सहड वैः स्वामिभिर्वतते निजनजस्वामियुक्त चतुकायदधस्तथा देवगनाम्ना प्रत्यकृता नमस्कृत मत्यर्थः। आराहणासारं सम्यग्दर्शना दोमुद्योतनाद्यपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्यग्दनिादि चतष्टयं । तया तस्ये वा राधना तयोपाइयवत्तात ॥" अन्त मे लिगा है “विनयेन्दुमुनेहंतोराशाधर कवीश्वरः । स्फूटमाराधनासार टिप्पनं कृतवानि ॥" श्री विनय चन्द्रमित्यागाधरविचिताराधनामार विवृत्तिः समाप्ता। अत: विनय चन्द्र का समय वि० स० १२७० मे १२६६ तक जान पड़ता है । --रामचन्द्रमुमुक्षु प्राचार्य कुन्द-कन्द की वशपरम्परा में दिव्य वृद्धि के धारक केशवनन्दी नामके प्रसिद्ध यति हए। जो भव्य जीव रूप कमलो को विकसित करने के लिए सूर्यसमान, थे, सयम के प्रतिपालक, कामदेव रूप हाथी को नष्ट करने मे सिह के समान पराक्रमी, ग्रार अनेक दु:ग्वोत्पादक कर्मरूपो पर्वत को भेदने के लिये वज्र के समान थे। बड़े-बड़े योगीन्द्र और राजा महागजा जिनके चरणा की वन्दना करते थे। और जो समस्त विद्याओं में निष्णात थे। उन्हीं -पूरी गाथा इस प्रकार है: १. जैन ग्रन्थप्रति म० भा० १ पृ० १६६ २. उपशम इव मूर्ते मागरेन्द्रो मुनीन्द्रादजनि विनय चन्द्र. मच्चकोरैक चन्द्रः । जगदमतमगर्भा गास्त्रसदर्भगर्भा. शुचिचरितवरिप्णी यंग्यधिन्वनिवाचः ।। ३. विमल यर गुगगसमिद्ध, मिद्ध मुग्मेण वदिय सिग्मा। गमिऊरण महावीर वोच्छं आगहरणा सारं ॥१ ४. “यो भव्याब्ज-दिवाकरो यमकगे मारेभ पञ्चाननो, नानाद.खविधायिकम्मकुभूतो वज्रायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्र-नरेन्द्र-वन्दित पदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान्, ख्यातः केशवनन्दिदेव-यतिपः श्रीकुदकुदान्वयः ॥१॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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