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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य पौर विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कन्नड भाषा के जन्न, पाव, कमलभव, प्रादि कवियों ने कवि नेमिचन्द्र की प्रशंसा की है। श्रीधर यह ज्योतिष शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । यह कर्नाटक प्रान्त के जैन ब्राह्मण थे, और बेलबुल नाडांतर्गत नरिगंद के निवासी थे। इनकी माता का नाम अव्वोका और पिता का नाम बलदेव शर्मा था। इन्होंने अपने पिता से ही संस्कृत और कन्नड ग्रन्थों का अध्ययन किया था। प्रारम्भ में यह शैव धर्मानुयायी थे, किन्तु बाद में जैन धर्मानुयायी हो गए थे । यह गणितशास्त्र के अच्छे विद्वान थे । इनका समय ईसा की दशवीं शताब्दी का अन्तिम भाग और संभवतः ११वीं का प्रारंभ रहा है। इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञान निधि दो रचनाएं संस्कृत भाषा में हैं और जातक तिलक कन्नड भाषा की रचना है। गणितसार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुवन्ध, भागमात्र जाति, त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रक व्यवहार एक पत्रीकरण, सुवर्ण गणित, प्रक्षेपक गणित, क्रय-विक्रय, श्रेणी व्यवहार और काष्ठक व्यवहार आदि गणितों का कथन किया है। ज्योतिनिनिधि-यह ज्योतिष का प्रारम्भिक ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में संवत्सरों के नाम, नक्षत्रों के नाम, योग करण और उनके शुभा शुभ फल दिये हैं । इसमें व्यवहारोपयोगी ज्योतिष का वर्णन है। जातक तिलक-कन्नड भाषा का ग्रन्थ है। यह जातक सम्बन्धी रचना है । यह कन्द वृत्तों में रचा गया है इसमें २४ अधिकार हैं । इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेश का कथन किया गया है । इस ग्रन्थ को श्रीधराचार्य ने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के राज्यकाल में बनाया या। कवि ने लिखा है कि मैंने विद्वानों की प्रेरणा से जातक तिलक की रचना की । यह ग्रन्थ मैसूर विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित हो चुका है। वासवचन्द्र मुनीन्द्र इन्हें मूलसंघ देशीयगण के विद्वान प्राचार्य गोपनन्दी के सधर्मा बतलाया है । यह कर्कश तर्कशास्त्र में निपुण थे। इन्होंने चालक्य राजधानी में अपने वाद पराक्रम से 'वाल सरस्वति' की उपाधि प्राप्त की थी। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है वासवचन्द्र-मुनीन्द्रोरुन्द्र-स्याद्वाद-तर्कश-कर्कश-धिषणः । चालुक्य कटकमध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धिप्राप्तः॥ . -जैन लेख सं० भा० १ पृ० ११६ यह लेख शक सं० १०२२ (सन् ११०० ई०) में उत्कीर्ण किया गया है। प्रतः वासवचन्द्र का समय ईसा को ११वीं शताब्दी जान पड़ता है। देवेन्द्रमुनि इनकी गुरु-शिष्य परम्परा ज्ञात नहीं है । इनकी एक रचना बालग्रह चिकित्सा है । इसमें बालकों को ग्रहपीड़ा की चिकित्सा का वर्णन है । ग्रन्थ प्रायः वाक्य रूप में है । कवि का समय लगभग १२०० ईसवी है। नयकोतिमुनि मुनि नयकीति मूलसंघ देशीयगण के प्राचार्य गुणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । जो जैनागम के
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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