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________________ ३७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे। इनका समय १२वीं शताब्दी का तृतीय चरण होना चाहिये । "सिरिसेणु पंडित पहाणु, तहो तीसुवाइय-काणण-किसाणु।" नेमिचन्द्र यह कवि अपने समय में बहुत प्रसिद्ध था। वीर वल्लाल देव और लक्ष्मण देव इन दो राजामों की सभा में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। कलाकान्त, कविराज मल्ल, कवि धवल, शङ्गारकारागृह, कविराज कंजर, साहित्य विद्या धर, विद्यावधवल्लभ, सुकविकण्ठाभरण, विश्वविद्या विनोद, चतुर्भापा कवि चक्रवर्ती, सूकर कवि शेखर, आदि इसके विरुद थे। इसकी दो कृतियाँ उपलब्ध हैं-लीलावती और नेमिनाथ पुराण। इनमें लीलावती कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसमें १४ पाश्वास हैं। कवि ने इसे केवल एक वर्ष में बनाकर समाप्त किया था। यह ग्रन्थ मुख्यतः शृगारात्मक है। कर्नाटक कवि चरित में इसकी कथा का सार निम्न प्रकार दिया है : कदम्बवंशीय राजाओं की राजधानी जयन्तीपुर अथवा जनवास नाम के नगर में थी। वहाँ चडामणि नाम का राजा राज्य करता था। उसकी प्रधान रानी का नाम पद्मावती और पुत्र का नाम कन्दर्प देव था । गुणगन्ध नामक मंत्री का पुत्र मकरन्द राजकुमार का बहुत ही प्यारा मित्र था। कन्दर्प एक दिन स्वप्न में एक रूपवती स्त्री का दर्शन करके उस पर अत्यन्त आसक्त हो गया। दूसरे दिन उस स्त्री को खोज में वह अपने मित्र के साथ उस दिशा की ओर चल दिया, जिस दिशा की ओर उसने उसे स्वप्न में जाते देखा था। चलते-चलते वह कुसुमपुर नाम के नगर में पहुंचा। वहाँ के राजा शृगारशेखर की लीलावती नाम की एक रूपवती राजकुमारी थी। इस राजकुमारी ने भी स्वप्न में एक राजकुमार को देखा था और उस पर अपना तन मन वार दिया था। स्वप्नदष्ट राजकमार की खोज में उसने कई दूत इधर-उधर भेजे थे। उन दूतों के द्वारा लीलावती और कन्दर्प का परिचय हो गया.और अन्त में उन दोनों का विवाह हो गया। लीलावती को प्राप्त करके कन्दर्प अपनो राजधानी को लौट प्राया और सुखपूर्वक राज्य-कार्य सम्पादन करने लगा।" इसका कथा भाग सुबन्धु कवि की वासवदत्ता का अनुकरण मालूम होता है। ___ लीलावती की रचना सरस और सुन्दर है । इसकी रचना गंभीर, शृगाररसपूरित और हृदयहारिणी है। इससे कवि की प्रतिभा, शब्द सामग्री का चयन और वाक्यपद्धति अनन्यसाधारण प्रतीत होती है। कवि की दूसरी कृति 'नेमिनाथ पुराण' है । इसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। यह ग्रन्थ कवि ने वीरवल्लाल नरेश (११७१-१२१६) के पद्यनाभ नामक मंत्री की प्रेरणा से बनाया था। यह ग्रंथ प्रधरा जान पड़ता है। क्योंकि इसके प्रारंभ में यह प्रतिज्ञा की गई है कि नेमिनाथ की कथा में गौणता से वासुदेव कृष्ण प्रौर कन्दर्प की कथा का भी समावेश किया जायगा, परन्तु आठवे आश्वास में कंसवध तक का कथा भाग पाया जाता है। जान पड़ता है, ग्रन्थ पूर्ण होने से पहले ही कवि दिवंगत हो गया हो। इस कारण ग्रन्थ का नाम 'प्रर्धनेमि' कहा जाने लगा है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में तीथकर, सिद्ध, यक्ष यक्षिणी और गणधर की स्तुति के बाद गद्धपिच्छ प्राचार्य से लेकर पूज्यपाद पर्यन्त पूर्वाचार्यों का स्मरण किया गया है। ग्रन्थ के प्रत्येक पाश्वास के अन्त में निम्नलिखित गद्य मिलता है-"इति मद्पद बन्ध बन्धुर सरस्वतीसौभाग्य व्यंग्य भंगी निधान दीपति-चतुर्भाषाकवि चक्रर्वात नेमिचन्द्र कृते श्रीमत्प्रताप चक्रर्वात श्री वीर बल्लाल प्रसादासादित-महाप्रधान पदवीविराजि नाभदेवकारिते नेमिनाथ पुराणे।" ___ लीलावती ग्रन्थ के अन्त में इसने एक पद्य में लिखा है कि राजा लक्ष्मणदेव समुद्र बलयांकित पृथ्वी का स्वामी है। उक्त लक्ष्मणदेव का कर्णपाय (११४०) ने अपने नेमिनाथपुराण में उल्लेख किया है। कर्णपार्य के समय में लक्ष्मणदेव सिंहासनारूढ़ नहीं हुआ था, उसका पिता या बड़ा भाई विजयादित्य राज्य करता था। परन्तु कवि नेमिचन्द्र के समय वह राज्य का स्वामी था। इससे कवि नेमिचन्द्र का समय कर्णपार्य के बाद का निश्चित होता है। नेमिचन्द्र ने नेमि पुराण की रचना जिस वीरवल्लाल के मंत्री पद्मनाभ की प्रेरणा से की है, उसका समय ११७२ से १२१६ पर्यन्त है । इससे भी उक्त समय यथार्थ प्रतीत होता है । कविनेमिचन्द्र ईसा की १२वीं शताब्दी के चतुर्थ चरण
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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