SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ विद्वान और सैद्धान्तिकाग्रेश्वर, चारित्र चूडामणी, शल्यत्रयरहित, और दण्डत्रय के ध्वंसक थे ' । नागदेव मंत्री इनके शिष्य थे । गुणचन्द्र मुनि के पुत्र माणिक्यनन्दी इनके सधर्मा थे। इनकी शिष्य मंडली में मेघचन्द्र व्रतीन्द्र, मलधारि स्वामी, श्रीधरदेव, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्तिमुनि, बालचन्द्र मुनि, माघनन्दिमुनि, प्रभाचन्द्र मुनि, पद्मनन्दी मुनि और नेमिचन्द्र मुनि के नाम मिलते हैं । नयकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १०६६ (सन् १९७७) में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी शनिवार को हुआ था । जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है शाके रन्ध्रनवद्यचन्द्रमसि दुम्मुख्याख्य संवत्सरे वैशाखे धवले चतुर्दशि दिने वारे च सूर्य्यात्मजे । पूर्वाह्न प्रहरे गतेऽर्द्धसहिते स्वर्ग जगामात्मवान् ॥ विख्यातो नयकीर्ति देव मुनिपो राद्धान्तचक्राधिपः ॥ २३ नागदेव मंत्री ने अपने गुरु नयकीर्ति की निषद्या का निर्माण कराया था । माणिक्यसेन पंडितदेव यह मूलसंघ सेनगण पोगरि गच्छ के वीरसेन पंडितदेव का सधर्मा था । यह सन् १९४२-४३ ईसवी दुन्दुभि वर्ष पुष्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण संक्रान्ति के समय पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेक मल्ल द्वितीय के राज्यकाल में, उसके वनवसे १२००० के प्रदेश पर शासन करने वाले योगेश्वर सेनाध्यक्ष की प्रशंसा करता है और पेगंडे मय्दुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से, जो जिज्वलिगे ७० के राज्य पर शासन कर रहा था, इसने प्रावली के भगवान पार्श्वनाथ को एक भूमिदान दिया । और एक दान संभवतः एक जैनमन्दिर को मुद्द गावुण्ड और दूसरे लोगों द्वारा दिया गया था। जो जैनधर्म के पक्के अनुयायी श्रौर भक्त थे । यह दान उक्त वीरसेन पण्डितदेव के सहधर्मी माणिक्यसेन पण्डितदेव के पाद प्रक्षालनपूर्वक दिया गया था । इससे पण्डित माणिक्यसेन का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्य काल है । - ( जैन लेख संग्रह भा० ३ पृ० ५६ - महासेन पण्डितदेव इनकी गुरु परम्परा और गण गच्छादि का उल्लेख मेरे देखने में नहीं प्राया । डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार ये नयसेन पण्डितदेव के शिष्य थे। इनका उल्लेख पद्मप्रभ मलधारिदेव ने नियमसार की तात्पर्यवृत्ति में किया है और उन्हें ६६ वादियों के विजेता होने से विशालकीर्ति को उत्पन्न करने वाला सूचित किया है । २ तथा १६१ गाथा की वृत्ति में ' तथा चोक्तम् श्री महासेन पण्डितदेवैः ' - वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धृत किया है :ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचनः । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥ १. साहित्य प्रमदा-मुखाब्जमुकुरश्चारित्र-चूड़ामणि । श्री जैनागम वाद्धि-वर्द्धन-सुधाशोचिस्समुद्भासते । शल्यत्रय - गारव-त्रय लसद्दण्ड त्रय ध्वंसक -- स्स श्रीमानन्नयकीर्ति देव मुनियस्सैद्धान्तिकाग्रेसरः ||२० - जैन लेख सं० भा० १ पृ० ३७ --- २. उक्तं च षण्णवति पाषंडि विजयोपार्जित विशालकीर्तिभिः महासेन पण्डितदेव : यथावद्वस्तु निर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्वार्थ व्यवसायात्मा कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।। - नियमसार तात्पर्य वृत्ति पृ० १३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy