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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३५६ निश्चित होता है । बारात सज-धज कर जूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राज पुत्रों के साथ रथ बैठे हुए आस-पास की प्राकृतिक सुषमा का निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा कि बहुत से पा एक वार्ड में बन्द है । वे वहा से निकलना चाहते है किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नही है । नेमिनाथ ने सारथि से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं। नेमिनाथ सारथि मे यह जान कर बड़ा मंद हया कि बरात में आने वाले राजाओं के प्रातिथ्य के लिये इन पशुयों का वध किया जायगा । इसमे उनके दयालु हृदय को बडी उस लगी, वे बोल यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिक्कार है मेरे इस विवाह को अब मैं विवाह नही करूंगा। पशुओं को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकुट और कंकण को फेक वन की ओर चल दिय । इस समाचार से बरात में कोहराम मच गया। उधर जूनागढ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी का यह ज्ञात हुम्रा, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थं । नेमिनाथ पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ गए चोर सहसाम्र वन में वस्त्राकार आदि परधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धर श्रात्मध्यान में लीन हो गए। राजमती प्रतिदुःखित हाती है तांगरी सधि में इसके वियोग का वर्णन है । राजीमनी ने भी तपश्चरण द्वारा ग्रात्म-साधना की । अन्तिम सन्धि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वाण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है । इस तरह ग्रन्थ का चरित विभाग बड़ा ही सुन्दर तथा सक्षिप्त है, यार कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है । कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर ग्रकन करते हुए कहा है-जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है । उसे भोजन के प्रति अरुचि है। जिसमे भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नही । जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे अति लोभ है। जिसमें काम का प्रभुत्व है उसक भार्या नहीं जिसके पास स्त्री है उसका काम शान्त है । जमा को ग्रन्थ की निम्न पक्तियों से स्पष्ट है जगु गेहि ग्रण्ण तमु ग्ररु होइ, जमु भोज सत्ति तमु ससुण होइ । जमु दाण चाहु तगु दविणु णत्थि जमु दविणु तासु उइलोहु प्रत्थि । जयपुरा तसि णत्थि भाम, जसु भाम तामु उच्छवण काम । -- मिणाहचरिउ ३-२ कवि ने ग्रंथ में कनकों के प्रारम्भ में हेला, दुवई और वस्तु बंध यादि छन्दों का प्रयोग किया है। किंतु ग्रन्थ में छन्दों की बहुलता नही है । ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों का प्रयोग किया है । वे इस प्रकार है कि जीवइ धम्म विवज्जि एण— धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है कि सुहडइ संगर कायरेण - युद्ध में कायर सुभटों से क्या ? कि वयण असच्चा भाषण, झूठ वचन बोलने से क्या प्रयोजन कि पुत्तइ गोत्तविणासणंण, — कुल का नाश करने वाले है पुत्र से क्या ? कि फुल्लइ ग्रथ विवज्जिएण- गंध रहित फूल से क्या ? ग्रंथ की पुष्पिका में कवि ने अपने पिता का उल्लेख किया है। - इति मिणाह चरिए अवुहकइ रयण सुन लक्खणेण विरइए भव्वयणमणाणंदे णेमिकुमार संभवोणाम पढमो परिच्छेश्रो समत्तो । लघु श्रनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमाला के कर्ता) लघु अनन्तवीर्य ने अपनी गुरु परम्परा का और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया । इस कारण उनके रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई हो रही है। इन लघु अनन्तवीर्य की एक मात्र कृति परिक्षामुख पंजि
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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