SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० १ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ का है, जिसका नाम उसकी पुष्पिका वाक्यों में 'लघुवृत्ति' दिया हुआ है । यह ग्रन्थ प्रमेय बहुल होने के कारण बाद को इसका नाम प्रमेय 'रत्न माला' हो गया है। कर्ता ने इसके विषय का संक्षेप में इतने सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है कि न्याय के जिज्ञामुनों का चित्त उसकी ओर प्राकर्षित होता है । इसमें समस्त दर्शनों के प्रमेयों का इतने सुन्दर एवं व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन किया गया है । यदि प्रमेयों का विशद वर्णन न किया जाता तो प्रमाण की चर्चा प्रधूरी ही रहती । माणिक्यनन्दी के परीक्षामुखकी विशाल टीका प्रमेयकमल मार्त्तण्ड इन अनन्तवीर्य के सामने था, उसमें दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है। पंजिकाकार ने प्रभाचन्द्र के वचनों को उदार चन्द्रिकाकी उपमा दी है और अपनी रचना पंजिका को खद्योत (जुगनू) के समान प्रकट किया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : "प्रभेन्दुवचनोदार चन्द्रिकाप्रसरे सति । मादृशाक्वनु गण्यन्ते ज्योतिरिगण सन्निभा ॥" फिर भी लघु प्रनन्तवीर्य की यह कृति अपने विषय की मौलिक है, यह उसकी विशेषता है । अनन्तवीर्य ने इसकी रचना वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषेण के लिये बनाई है । परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है । उसी के अनुसार पंजिका भी छह अध्यायों में विभाजित है, जिन में प्रमाण, प्रमाण के भेदों का कथन, प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः और श्रप्रमाण्य परतः हाता है, मीमांसको की इस मान्यता का निराकरण करते हुए अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में परतः प्रामाण्य सिद्ध किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के वर्णन में मति ज्ञान के ३३६ भेदों का प्रतिपादन सर्वज्ञ की सिद्धि और सृष्टि कर्तत्व का निराकरण किया गया है । परोक्ष प्रमाण के स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि भेदों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए वेदों का पोरुषेय सिद्ध किया है । चार्वाक, बौद्ध, नैयायिक, वैशेपिक और मीमांसकों के मतां की आलोचना की गई है । प्रमाण का फल और प्रामणाभासों के भेद प्रभेदों का सुन्दर विवेचन किया है। इसमे ग्रन्थ की महत्ता और गौरव बढ़ गया है । आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा स्मृत कलंक के सिद्धि विनिश्चय के व्याख्याकार अनन्तवीर्य इनसे भिन्न और पूर्ववर्ती हैं । पडित प्रवर ग्राशधर जी ने अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका ( पृ० ५२८) में प्रमेय रत्नमाला का मंगल श्लोक उद्धृत किया है । इन्होंने अनगार धर्मामृत को टीका को वि० सं० १३०० (सन् १२४३ ) में समाप्त किया था । इससे प्रमेयरत्नमालाकार लघु अनन्तवीर्य का समय ई० सन् १०६५ और ई० सन् १२४३ के मध्य प्राजाता है। अनन्तवीर्य की इस प्रमेय रत्नमाला का प्रभाव हेमचन्द्र की 'प्रमाण मीमांसा' पर यत्र तत्र पाया जाता है । हेमचन्द्र का समय ई० सन् १०८८ से ११७३ है । अतः अनन्तवीर्य ईसा की ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान प्रमाणित होते हैं । ५ बालचन्द्र सिद्धान्तदेव मूलमंघ देशीयगण और वक्र गच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य रामचन्द्रदेव थे । जिन्हें यादव नारायण वीरवल्लाल देव के राज्य काल में नल संवत्सर १११८ ( सन् १९९६) में पुराने व्यापारी कवडमम्य और देव सेट्ठि ने शान्तिनाथदेव की वर्माद के लिये दान दिया था । इससे बालचन्द्र सिद्धान्तदेव का समय ईसा की १२वीं शताब्दी है । - जैन लेख सं० भा० ३ पृ० २३० १ इति परीक्षा मुखम्य लघुवृत्ती द्वितीयः समुद्देशः ||२॥ २ वैजेयप्रियपुत्रम्य ही पस्योपरोधतः । शान्तिषेग्गार्थमारब्धा परीक्षामुपञ्जिका ॥ ३ नतामरशिरोरत्न प्रभाप्रोतनरवत्विषे । नमोजिनाय दुर्वार मारवीरमदच्छिदे ।। - प्रमेय रत्नमाला ४ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालयेऽसिघत् । विक्रमादशतेत्रेषा त्रयोदशम् कार्तिके ||३१|| अनगार धर्मामृत प्रशस्ति ५ प्रमाण मीमांसा प्रस्तावना पृ० ४३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy