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________________ २६६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ आने से शक वर्ष १०३४ ग्रहण किया गया है । अर्थात् धर्मामृत की रचना ई० सन् १९१२ के लग भग हुई है। इस ग्रन्थ की हिन्दीटीका प्राचार्य देशभूषण ने की है ग्रंथ मूल और हिन्दी टीका सहित दो खण्डी में प्रकाशित हो चुका है । नयसेनके लिये शक संवत् ६७५ के विजय संवत्सर में सन् १०५३ में वेलदेव की प्रेरणा से सिन्दकुल के सरदार कचसर ने कुछ भूमि दान में दी थी। इससे ज्ञात होता है कि नयमेन दीर्घ जीवी थे। उसके बाद वे अपने जीवन से भूमंडल को कितने वर्ष और अलंकृत करते रहे, यह अन्वेषणीय है । मल्लिषेरण मल्लिषेण - अजितसेन की शिष्य परम्परा में हुए हैं। अजितसेन के शिष्य कनकसेन' और कनकसेन के शिप्य जिनसेन और जिनसेन के शिष्य मल्लिपेण थे। इन्होंने जिनमेन के अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेन का भी गुरु रूप से उल्लेख किया है वादिराज ने भी न्यायविनिश्चय को प्रशस्ति में कनकसेन और नरेन्द्रमेन का स्मरण किया है उ इससे वादिराज भी मल्लिषेण के समकालीन जान पड़ते हैं । और उनके द्वारा स्मृत कनकमेन और नरेन्द्रमेन भी वही ज्ञात होते हैं । मल्लिपेण वादिराज के समान मठपति ज्ञात होते हैं। क्योंकि इनके रचित मंत्र-तंत्र विषयक ग्रंथों में स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण और अंगनाकर्षण आदि के प्रयोग पाये जाते हैं। ये उभय भाषा कवि चक्रवर्ती (प्राकृत प्रौर संस्कृत भाषा के विद्वान ) कविशेखर, गारुड़ मत्रवादवेदी आदि पदवियों से अलंकृत थे । उन्होंने अपने को सकलागम में निपुण, लक्षणवेदी, और तर्कवेदी तथा मंत्रवाद में कुशल सूचित किया हे' । वे गृहस्थ शिष्यों के कल्याण के लिये मंत्र तंत्र और रोगोपचार की प्रवृत्ति भी करते थे। वे उच्च श्रेणी के कवि थे । भैरव पद्मावती कल्प के अनुसार उनके सामने संस्कृत प्राकृत का कोई कवि अपनी कविता का अभिमान नहीं कर सकता था । यद्यपि वे विविध विषयों के विद्वान होते हुए भी मंत्रवादी के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति थी । यह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के अन्त और १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे। क्योंकि इन्होंने अपना 'महापुराण' शक सं० ६६६ सन् १०४७ ( वि० सं० १९०४) में ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन मूलगुन्द नामक नगर के जैन मन्दिर में रह कर पूरा किया था । यह मूल गुन्द नगर धारवाड जिले की गदग तहसील में गदग १ जैन लेख सं० भाग चार पृ० ६० १ यह कनकमेन उन अजितमेनाचार्य के शिष्य थे जो गंगवंशीय नरेश राचमल्ल और उनके मंत्री एवं सेनापति - मुण्ड राय के गुरु थे। गोम्मटमार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उनका 'भुवनगुरु' नाम से उल्लेख किया है। २ तस्यानुजश्चारु चरित्र वृत्तिः प्रख्यात कीर्तिर्भुवि पुण्यमूर्तिः । नरेन्द्रसनो जितवादिमेनां विज्ञाततत्त्वो जिनकामसूत्रः ॥ ३ न्याय विनिश्चय प्रशस्ति श्लोक २ । जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मं० भा० १५० २ ४ 'प्राकृत मकुतोभय कवित्वधृता कविचक्रवर्तिना' ५ ' गारुड मंत्रवाद सकलागम लक्षरण तर्क वेदिना ।' ६ " भाषाद्वय कवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह । ना लोकयन्ति यावत्कविशेखर मल्लिषेण मुनिम् ॥" भैरव पद्मावती कल्प ७ तीर्थ श्री मूलगुन्द नाम्नि नगरे श्री जैनधर्मालये स्थित्वा श्री कविचक्रवर्तियतिपः श्री मल्लिषेरणाह्वयः । संक्षेपात्प्रथमानुयोग कथनं व्याख्यान्वितं शृण्वतो । भव्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेष विद्याम्बुधिः ॥ १ वर्षक गिताहीने सहस्र शक भूभुजः । सर्व जिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ले पंचमी दिने ॥ २ ॥ - नागकुमार चरित्र प्र० - महापुराण प्रशस्ति - महापुराण प्रशस्ति ४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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