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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६५ तक उनकी सेवा करते थे। नरेन्द्रसेन व्याकरण और न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान थे। और विविध उपाधियों से अलंकृत थे। ये मल्लिषेण के गुरु जिनसेन के सधर्मा थे इन्होंने नयसेन को पढ़ाकर अच्छा विद्वान बनाया था । इसी से नयसेन ने उनका बड़े आदर के साथ स्मरण किया है । मुलगद के शिलालेख (सन् १०५३) में नरेन्द्र सेन के शिष्य नयसेन को सभी व्याकरण ग्रन्थोंका ज्ञाता विद्वान बतलाया है निनगर्ने बे नो शाकटाइन, मुनीश ताने शब्दानुशासन दोल पाणिनी, पाणिनीय दोलचन्द्र चान्द्रादोलतज्जिन । द्रन जैनेन्द्र दोला कुमार ने गंड कौमार वोलान्वररेंतेने पोन्नतन्नयसेन पंडितं रोलन्याधिवितोयोल ।। वचन:-इतु समस्त शब्द शास्त्र पारगन्नय सेन पंडित देवर नयसेन को बनाई हई दो रचनाए उपलब्ध हैं। कर्णाट भाषा का व्याकरण और दूसरा ग्रन्थ धर्मामत । इसमें १४ पाश्वास हैं। इन आश्वामो में कवि ने सम्यग्दर्शन और उसके पाठ अग और पाच व्रतों को कथानों के माध्यम से श्रावका चार का विस्तृत कथन किया है। इस ग्रन्थ की भाषा कनड़ी है, जो बहुत ही सुन्दर, ललित और शुद्ध है। इसी से कवि की गणना कन्नड़ साहित्य के आकाश में देदीप्यमान ग्रन्थकारो में की गई है, और सौभाग्य से प्रायः वे सव कवि जैन है। पम्प, रन्न, पोन्न, साल्व, रत्नाकर, अग्गल और बन्धुवर्गी आदि सब कवि जैनधर्म के प्रेमी और श्रद्धालु थे। कन्नड साहित्य के भण्डार को इन्होंने समृद्ध किया है । इस समद्धि में नयसेन का बहुत बड़ा भाग रहा है। इनके ग्रन्थ में भाषा का सौष्ठव और उपमादि अलंकारों की छटा पद-पदपर देखने को मिलती है। भाषा में प्रवाह और प्रोज है। कथानक की शैली सरल और सजीव तथा रोचक है । यह सजीवता ही लेखक की अपनी विशेषता है। ग्रन्थ में कर्ता ने धर्मामृत के आदि में अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है जिनकी संख्या पचपन (५५) है-"अहंदबली, गणधर, प्रार्यमक्ष नागहस्ति, यतिवषभ, धरसेनाचार्य, भूतबली, पूष्पदन्त, कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूचि भट्टारक, स्वामि समन्तभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, सिद्धसेन श्रुतकीर्ति, प्रभाचन्द्र, बप्पदेव एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अजितसेनमुनि, सोमदेव पण्डित,त्रिभुवनदेव, नरेन्द्रसेन, नयसेन, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि' सैद्धान्तिक (माघनन्दी) गुणचन्द्र पण्डित, विद्य नरेन्द्रसेन, वासुपूज्य सिद्धान्ती, पद्मनन्दी सैद्धान्तिक, मेघचन्द्र सैद्धान्तिक, माघनन्दी सैद्धान्तिक, प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक, अर्हनन्दी भट्टारक, श्रुतकीति, रामसिंह, वासुपूज्य भट्टारक, चारुसेन, कुक्कुटासन मलधारि, मेघचन्द्र विद्य रामसेनवती. कनकनन्दी मुनीन्द्र, प्रकलंक, असगकवि, पोन्नकवि, पम्पकवि, गजांकुशकवि,गुणवर्मा, रन्न कवि, । कवि नयसेन ने साधारण कथा को इतने सुन्दर ढंग से चित्रित किया है कि वह पढ़ते समय पाठक के मानस पर अपना प्रभाव अंकित किये बिना नहीं रहती। यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती कवियों ने इसे सुकवि निकर पिक माकन्द, सुकवि जनमनः सरोराजहंस' आदि विशेषणों से भूषित किया है । ग्रन्थकर्ता ने अपने को 'मूलगुन्द' का निवासी बतलाया है । जो एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। मूलगुन्द धारवाड जिले की गदग तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यहीं के जैन मन्दिर में बैठकर कवि ने कनड़ी भाषा में धर्मामृत की रचना की है। जो २४ अधिकारों में विभक्त है। यहाँ इस समय चार जैन मन्दिर हैं। यहा के मन्दिर में रहते हए मल्लिषेणाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। और मैं जगत पूज्य-सुकवि-निकर-पिकमाकन्द हो गया है लिखा है। कवि ने ग्रंथ की रचना का समय अक्षरों में दिया है। उसमें 'गिरी' शब्द का संकेतार्थ सात होते हुए भी 'नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में १ मूल नथ के टिप्पण में रामनन्दि का नाम माघनन्दि दिया है। २ मूल गुददोलिदु महोज्ज्वल धर्मामृत मनतिमिद भव्या । बलि गिरि पदं धरित्री-तल पूज्यं सुकवि निकर पिकमाकन्दं ॥ -धर्मामृत १४-१६८ ३ 'गिरि शिखी वायु मार्गशशी संन्य योला वगमोदिवति सुत्तिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल" -धर्मामृत प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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