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________________ २७२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उन्होंने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जो प्रशस्ति दी है, उसमे उनकी गुरुपम्परा निम्न प्रकार है :-अतः पद्मनन्दी वीरनंदि के प्रशिप्य और बलनन्दि के शिष्य थे। जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति की प्रशस्ति में उन्होने अपने को गुण गणकलित त्रिदण्ड रहित, त्रिशल्य परिशुद्ध, विगारव रहित, सिद्धान्त पारगत, तप नियम योगयुक्त, ज्ञानदर्शन चरित्तोद्युक्त और प्रारम्भ रहित बतलाया है अपने गुरु वलनन्दि को सूत्रार्थ विचक्षण, मति प्रगल्भ, परपरिवाद निवृत्त, सर्वसग निःसंग (परिग्रहरहित) दर्शनज्ञान चारित्र मे सम्यक् अधिगत मन, पर तृप्ति निवृत्त मन, और विख्यात सूचित किया है। और अपने दादा गुरु वीरनन्दि को पच महाव्रत शुद्ध, दर्शन शुद्ध , ज्ञान मयुक्न, सयम ता गुण महित, रागादि विजित, धीर, पचाचर समग्र, षट् जीव दयातत्पर, विगत मोह और हर्ष विषाद विहीन विशेषणो के साथ उल्लेखित किया है । और अपने शास्त्र गुरु श्री विजय को नाना नरपति पूजित, विगतभय, सग भग उन्मुक्त, सम्यग्दर्शन शुद्ध मयम तप-गील मम्पूर्ण, जिनवरवचन विनिर्गत, परमागम देशक, महासत्व, श्रीनिलय, गुणसहित और विख्यात विशेषणों मे प्रकट किया है । पद्मनन्दि ने श्री विजय गुरु के प्रमाद मे जम्बुद्वीपण्णत्ती को रचना माघनदि के शिष्य सकलचन्द और उनके शिष्य श्रीनन्दी के लिये की है। इस ग्रन्थ में १३ अधिकार है जिनकी गाथा मख्या २४२७ पाई जाती है। ग्रन्थ का विषय मध्यलोक के मध्यवर्ती जम्बद्वीप का कालादि विभाग के माथ मुख्यता से वर्णन है। ओर वह वर्णन प्रायः जम्बुद्वीप के भरत, रावत महाविदेह क्षेत्रो, हिमवान आदि पर्वतो, गगा सिन्ध्वादि नदियो, पद्म महापद्मादि द्रहो, लनणादि समुद्रो तथा अन्य वाह्य प्रदेशो, काल के उत्पमपिणी अवमर्पिणी आदि भेद-प्रभेदो, उनमे होने वाले परिवर्तनो ओर ज्योतिष पटलादि मे सम्बन्ध रखता है। साथ ही लोकिक-अलोकिक गणत, क्षत्रादि की पमाण और प्रमाणादि के कथनो को भी साथ में लिये हुए है। यह ग्रथ पुगतन भूगोल- खगोल का सक्षिप्त वर्णन करता है। ग्रन्थ मे रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है, इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि स० १५१८ से पूर्व की अभी तक उपलब्ध नही हुई। इससे इतना सुनिश्चत है कि ग्रन्थ उक्त स० १५१८ मे पूर्व का बना हुआ है । जम्बूद्वीपपण्णत्ती १ तम्म य गुगण गण-कलिदो निदड रहियो तिमल्ल-परिसुद्धो। निरिणवि गारव रहिदो सिम्मो मिद्धत-गय-पागे ॥१६२ तव ग्गियम जोग-जुत्तो उवजूनी जागा-दगगा-चग्नेि। आरभ करण-रहिदो गामेगा प उमणंदित्ती ॥१६३ २. नम्मेवय वर-सिम्पो सुनत्थ-वियम्वगो मइ-पगम्भो। पर-परिवाद-रिणयत्ता गिगस्मगो मव्वसगसु ॥१६० मम्मत-अभिगद-मरणो गाग्गे नह दसगे चरित्ते य। पर तंति-गिगयतमगो बलग्गदि गुरुत्ति विवाओ ॥१६१ ३ पच महब्वय-सुद्वो दसगण-सुदो य गाण-सजुत्तो। मजम-नव-गुण-सहिदो गगादि-विवज्जिदो धीगे ॥१५८ पंचाचार-ममग्गो छज्जीव-दयावगे विगद-मोहो । हरिम-विमाय विहगो गामेगा वीरणदि त्ति ॥१५६ -जबूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रशस्ति ४. गाणा-णरवइ-महिदो विगयभओ सगभगउम्मुक्को। सम्मद्दसणमुद्धो सजम-तव-सीलसपूण्णो ॥१४३ जिणवर-वयण विणिग्गय-परमागमदेसओ महासत्तो। सिरिणिलओ गुणसहिओ सिरिविजयगुरु ति विक्खाओ ॥१४४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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