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________________ ग्यारहवी और बायहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २७१ आया। उस समय भवदेव का दुर्मर्षण और नाग देवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो गया था। भाई के प्रागमन का समाचार पाकर भवदेव उसमे मिलने पाया, आर स्नेहपूर्ण मिलने के पश्चात् उसे भोजन के लिये अपने घर मे ले जाना चाहता था, परन्तु भवदत्त भवदव को अपने सघ म ले गया और वहा मुनिवर मे साधु दीक्षा देने को कहा भवदेव अममजस म पड़ गया, क्यानि उसे घर म रहते हुए विषय-सुखो का आकर्षण जो था, किन्तु भाई का उस सदिच्छा का अपमान करने का उमे माहम न हुआ। प्रार उपायान्तर न देख प्रवृज्या (दीक्षा) लकर भाई के मनोरथ को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात १२ वप तक मध क साथ देश-विदेशो म भ्रमण करता रहा। किन्तु उमके मन में नागवम् के प्रतिगगभाव बना रहा । एक दिन अपने ग्राम क पास गे निकला। उगे विपय-चाह ने आकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का ग्मग्ण व रता हया एक जिनालय मे पहंचा, वहा उमने एक अजिका का देगा, व्रतो के पालने मे अतिकृगगात्र, अग्थि पजर मात्र गप रहने मे भवदेव उन पहचान न मका । अत उसम उमने अपनी स्त्री के विषय मे कगल वार्ता पछी। शजित्रा ने मुनि के चिन क चलायमान देखकर उन्हे धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह अापकी पत्नी दोह। पापक दीक्षा का गमाचार गलने पर मै भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक मयम का अनुमान पर लगा। अन्न म दोनो का मरकर मनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हा पोर मात सागर की आ7 तक का वाग किया। भवदत्त का जीव ग्वग में चयकर एण्टगेकिनो नगरी में वज्रदत्त राजा क घर सागरचन्द नाम का और भवदेव का जीव वीतगोवा नगरी क गजा महा पद्म च क्वीं का वनमाला रानी के शिव कुमार नाम का पुत्र हुग्रा । शिवकुमार का १०५ कन्या प्रागे विवाट हया, कराटा उनक अग रक्षक थे, जा उन्हें बाहर नहीं जाने देते थ। पुडण्रीकिनी नगरी म चारण मुनिया ग प्रपने पूर्व जन्म का पत्तान्न सुनकर मागर चन्द्र ने दह-भोगा से विरक्त हो मुनि दीक्षा लली। त्रयोदश प्रका• के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए भाई को सम्बोधित करने वातगोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महला के ऊपर में मुनिया को देखा, उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया, उमके मन मे देह-भोगो से विरक्तता का भाव उत्पन्न हया, उमने गज प्रामाद में कोलाहल मच गया। ओर उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप ओर व्रतो का अनुष्ठान हो सकता है। दीक्षा लेने की आवश्यता नही, पिता के अनुरोध वश कुमार ने तरणोजनो क मध्य म रहते हा भी विरक्त भाव गे नव प्रकार में ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया। ग्रार दूमग मे भिक्षा लेकर तप का आचरण किया। ओर प्रायू के अन्त म वह विद्यन्माली नाम का देव दया। वहा दग मागर की प्रायु तक चार देवागनाम्रो क साथ सुख भोगता रहा । अव वही विद्यन्माली देव या आया था, जो मानव दिन मनुष्यरूप में अवतारित होगा । गजा थणिक ने विद्यन्माली की उन चार देवागनायो के विषय म पूछा । तब गौतम स्वामी ने बताया कि चम्पानगरी म मुग्मेन नाम के मेठ की चार स्त्रिया थी जिनके नाम जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी और यशोमती । वह मेठ पूर्व मचित पाप के उदय से कुष्ट रोग में पीडित होकर मर गया, उसकी चागे स्त्रिया अजिकाए हो गई और तप के प्रभाव मे वे स्वर्ग में विद्यन्मालो की चार देवियाहां। पश्चात राजा थणिक ने विद्यच्चर के विषय म जानने की इच्छा व्यक्त की । तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश म हस्तिनापुर नामक नगर के गजा विसन्धर अोर श्रीमेना गनी का पुत्र विद्युच्चर नाम का था। वह सब विद्याओ और कलानो में पारगन था, एक चोर विद्या ही ऐमी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्यच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना न छोड़ा। वह अपने पिता के घर में ही पहच कर चोरी कर लता था और राजा को सुपप्त करक उमके कटिहार आदि आभूपण उतार लेता था। और विद्या बल से चोरी किया करता था। अब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में आ गया, ओर वहा कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । गौतम गणधर ने बताया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में अहंद्दास नाम के श्र प्ठि का पुत्र होगा, अोर उसी भव मे मोक्ष प्राप्त करेगा। पद्मनन्दी (जम्बूद्वीपपण्णत्ती के कर्ता) पद्मनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत पद्मनन्दि उनमे भिन्न जान पड़ते हैं । क्योंकि
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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