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________________ ज्यगरहवीं औ बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २७३ और त्रिलोकसार की कुछ गाथाओं में सादृश्य पाया जाता है। उससे एक दूसरे के आदान-प्रदान की आशंका होती है। त्रिलोकसार की रचना विक्रम की ११वी शताब्दी के पूर्वार्ध की है। प्रशस्ति में वारा नगर का वर्णन करते हए उसे पारियात्र देश में स्थित बतलाया है हेमचन्द्र के अनुमार 'उत्तगेविन्ध्यात, पारियात्रः' वाक्य मे पारियात्र देश विन्ध्याचल के उत्तर में है। वह उस समय पुरकरणी वावडो, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन-धान्य से समाकल, जिन भवनों मे विभूपित, सम्यग्दृष्टि जनों और मूनि गणों के समूहों में मंडिन था। उसमें वारा नगर का प्रभ शक्ति भूपाल गज्य करता था, जो मम्यग्दर्शन मे गद्ध, कुन-त कर्म, शील सम्पन्न, अनवरत दान शील, शासन वत्सल, धीर, नाना गुण कलित, नरपति मपूजित कलाकुगल अोर नरोत्तम था । नन्दि संघ की पट्टावली में वारा नगर के भदारकों की गही का उल्लेख है। जिसमें वि० सं० ११४४ मे १००६ तक के १२ भट्टारकों के नाम दिये हैं। पद्मनन्दि की गुरु परम्परा उससे सम्बद्ध जान पड़ती है। राजपूनाने के इतिहास में गुहिलोत वशी राजा नरवाहन के पुत्र गालिवाहन के उत्तराधिकारी गक्ति कुमार का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ में उल्लिखित शक्ति कुमार वही जान पड़ता है। आटपूर (आहाड़) के गिलालेख में गुहदन (गृहिल) मे लेकर शक्ति कुमार तक की पूरी वशावली दी है। यह लेख वि० सं० १०३४ वैशाख शक्ला १ का लिग्वा हया है। अतः यही समय जम्बूद्वीपपण्णत्ती की रचना का निश्चित है । यह पद्मनन्दि वित्रम की ११वी शताब्दी के विद्वान् हैं। इनकी दूसरी रचना 'धम्मग्मायण' है। यह ग्रन्थ भी इन्हीं का बतलाया जाता है। जो १६३ गाथाओं का ग्रन्थ है जो सरल एव सुबोध है। और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में सिद्धान्तमार के अन्तर्गत प्रकाशित हो चका है। इसमें धर्म की महिमा, धर्म-अधर्म के विवक प्रेरणा । परीक्षा करके धर्म ग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्म का फल नरकादिके के दुख मर्वज्ञ प्रणीत धर्म की उपलब्धि न होने पर चतुर्गतिरूप ससार परिभ्रमण, मर्वजों की परीक्षा और सागार अनगार धर्म का मक्षिप्त परिचय वणित है। कविधवल इनका जन्म विप्रकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर या मूरदेव था और माता का नाम केसाल देवी था, कवि धवल जिन चरणों में अनुरक्त और निर्ग्रन्थ ऋपियों का भक्त था। कुतीर्थ और कूधर्म से विरक्त था। इनके गुरु अंबगेण थे, जो अच्छे विद्वान और वक्ता थे। उन्होंने हरिवंश पुगण का जिस तरह व्याख्यान किया कवि ने उसको उसी तरह में निबद्ध किया। कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतएव रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई प्रतीत हो रही है। कवि ने अपनी रचना में अपने मे पूर्ववर्ती अनेक कवियों का ओर उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है । कवि चक्रवर्ती धीरमेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विगेप के कर्ता, देवनन्दी (जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता) वज्रसूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महामेन का मुलोचना चरित, रविषेण का पद्म चरित, जिनमेन का हरिवश पुराण जटिल मुनि का परांगचरित, दिनकरमेन का अनगरित, पद्ममेन का पार्श्वनाथ चरित, अंबसेन की अमृताराधना धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थों के रचयिता विा णमेन, सिहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णमोकार मंत्र सिद्धमेन का भविक विनोद, रामनन्दी के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित) धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीर चरित, गोविन्द कवि (श्वे०) का सनत्कुमार चरित, गालिभद्र का जोवउद्योत, चतुर्मग्व, द्रोण, मेढ महाकवि का पउम चरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख है । इन कवियों में असग ओर पद्ममेन ने अपने ग्रन्थों में रचना काल का उल्लेख किया है। आसग कवि का समय स० ६१० है, ओर पद्मसेन का समय वि० .१ देनो जम्बूद्वीपणत्ती की प्रगति की १६५ मे १६८ तक की गाथाए । २. देखो जैन साहित्य और इतिहास (बम्बई १९५६ पृ० २५६-२६५) ३. मइ विप्प हो मूरहो रणंदगोण, केमल्लय उवरि तह संभवरण । जिणवरहो चरण अनुरत्तएण, रिणग्गंथहं रिमियहं भत्तएण। कुतित्थ कुधम्म विरत्तएण, णामुञ्जलु पयडु वहंतएण ।। ४. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ० ११
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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