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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २३१ प्रस्तुत कथाकोश की रचना उक्त वर्धमानपुर में उस समय की गई, जबकि वहां पर विनायकपाल नामका राजा राज्य करता था। उसका राज्य इन्द्र के जैसा विशाल था।' यह विनायकपाल प्रतिहारवंश का राजा जान पड़ता है जिसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी। उस समय प्रतिहारों के अधिकार में केवल राजपूताने का ही अधिकांश भाग नही था, किन्तु गजरात, काठियावाड़, मध्य भारत और उत्तर में सतलज से लेकर विहार तक का प्रदेश था । यह महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र था ओर अपने भाइयों महीपाल और भोज (द्वितीय) के बाद गद्दी पर बैठा था । कथाकोश की रचना मे लगभग एक वर्ष पूर्व का वि० सं० १५५ का इसका दान पत्र भी मिला है। काठियावाड़ के हड्डाला गांव में विनायकपाल के बड़े भाई महीपाल के समय का भी शक स० ८३६ (वि० सं० ६७१) का एक दानपत्र मिला है। जिससे मालूम होता है कि उस समय बढवाण में उसके सामन्त चापवशी धरणीवराह का अधिकार था। उसके १७ वर्ष बाद ही बढवाण में कथाकोश रचा गया है। रचनाकाल नवाष्ट नवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः । विक्रमादित्य कालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥११ शतेष्ट सु विस्पष्टं पंचाशतत्र्यधिकेषु च । शक कालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ।।१२ प्रस्तुत कथाकोश की रचना शक सं० ८५३ (वि० सं०६८८) में की गई है। अतः प्रस्तुत कवि हरिषेण ईसा की दशवीं शताब्दी के विद्वान हैं। देवसेन (भट्टारक) भट्टारक देवसेन वाणराय (बाणवंशी किसी नरेश) के गुरु भवणन्दि भट्टारक के शिष्य थे। और जिनकी समाधि उनके मरण के उपरान्त बल्लीमलै (जिला अर्काट) में स्थापित की गई थी। प्रतिमा पर काल निर्देश रहित उक्त प्राशय का कन्नड़ शिलालेख अंकित है । मूर्ति लेख का काल ८-९ वीं शती के बाद का नहीं जान पड़ता। -जैन शि०सं० भाग २ पृ० १३६ देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं, जिनकी गरु परम्परा और समय भिन्न है। यहां दो-तीन देवसेनों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है; जो अन्वेषकों के लिये उपयोगी है। देवसेन देवमेन वे, जो पंचस्तपान्चयी वीरसेन स्वामी के शिष्य थे, और जिनसेन, पद्मसेन, श्रीपाल प्रादि के सधर्मा थे। जिनसेनाचार्य ने जयधवला टीका (प्रशस्ति श्लोक ३६) में पद्ममेन के साथ देवसेन का उल्लेख किया है। जिन सेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन ८३७ ई.) में समाप्त की है। प्रतः लगभग यही समय इन देवसेन का होना चाहिये । प्रस्तुत देवसेन हवीं शताब्दी के विद्वान थे। देवसेन (दर्शनसारादि के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने धारा नगरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में रहते हुए संवत -कथा० प्रश० १. संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खगभिधे। विनयादिक पालस्य राज्ये शक्रोपमान के ॥१३, २. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि० १५, पृ० १४०-४१ ३. राजपूताने का इतिहास जि०१ पृ० १६३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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