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________________ २३२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ 860 माघ शुक्ला दशमी के दिन 'दर्शनमार की रचना की है।' दर्शनसार में अनेक मतों तथा संघो की उत्पत्ति आदि को प्रकट करने वाला अपने विपय का एक ही ग्रन्थ है। देवमेन ने पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संकलन कर उसे दर्शनसार का रूप दिया है। जो अनेक एतिहासिक घटनाओं की सूचनादि को लिए हए है। इसमें एकान्तादि प्रधान पांच मिथ्यामतों और द्रविड, यापनीय, काप्ठा, माथर और भिल्ल सघों की उत्पत्ति का कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तों के उल्लेख पूर्वक दिया है । और द्रविड़ादि मघों को जैनाभास बतलाया गया है। देवमेन ने अपने गुरु का और गणगच्छादि की कोई उल्लेख नहीं किया। जिसमें उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता। दर्शनसार में दी गई तिथियों का समय वियम की मृत्यु के अनुसार है। किन्तु वि० सं० के साथ उनका कोई सामंजस्य ठीक नहीं बैठना । अतः उन तिथिया का सशोधन करना प्रावश्यक है। यदि उन तिथिया को शक संवत् की मान लिया जाय तो समय सम्बन्धी वे सभी वाधाय वे दूर हो जाती हैं। जो उन्हें विक्रम सवत मानने के कारण उत्पन्न होती है और ऐतिहासिक श्रखलानों में क्रम सम्बद्धता बनी रहती है। प० नाथ राम जी प्रेमी ने दर्शनसार की समालोचना को है। दर्शनसार के अतिरिक्त देवमेन की निम्न रचनाएं और मानी जाती हैं। तत्त्वमार, आराधनासार और नयचक्र। तत्त्वसार-७५ गाथात्मक एक लघ अध्यात्म ग्रन्थ है जिसमें स्वगत और परगत के भेद से तत्त्व का दो प्रकार से निरूपण किया है। और बतलाया है कि जिसके न क्रोध है न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, जो जन्म-जरा और मरण से रहित है वही निरंजन आत्मा है। "जस्स ण कोहो माणो माया लोहो ण सल्ल लेस्सायो। जाइ जरा मरणं चि य णिरंजणो सो प्रहं भणियो।' जो कर्मफल को भोगता हुआ भी उसमें राग-द्वेप नही करता है वह सचित कर्म का विनाश करता है और वह नतन कर्म से भी नहीं बधता । अन्त में कवि ग्रन्थ का उपसहार करता हुआ कहता है कि जो सदृष्टि देवसेन मुनि रचित तत्त्वसार को सुनता तथा उसकी भावना करता है, वह शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। प्राराधनासार--यह एक सौ पन्द्रह गाथात्मक ग्रन्थ है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और तपरूप चार आराधनाओं के कथन का सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूप मे दिया है। विपय विवेचन की शैली बडी सन्दर है। मरते समय आराधक कौन होता है ? इसका अच्छा कथन किया है और बतलाया है कि-जिस भव्य ने क्रोधादि कपायों को नष्ट कर दिया है, सम्यग्दृष्टि है और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न है अन्तरग, बहिरंग परिग्रह का त्यागी है वह मरण समय पाराधक होता है । यथा णिहय कसानो भव्वो सणवन्तो हणाणसंपण्णो। दुविह परिग्गहचत्तो मरणे अाराहनो हवइ ॥१७ जो सांमारिक सुख मे विरक्त है । शरीरादि पर इष्ट वस्तुओं से प्रीतिरूप राग जिसका नष्ट हो गया है-- वैराग्य है, अथवा संसार शरीर भोगों से निर्वेद को प्राप्त है, परमोपशम को प्राप्त है जिसने अनन्तानुबंधिचतुष्टय, तीन मिथ्यात्व रूप मोहनीय कर्म की इन सात प्रकृतियों का उपशम है, और अन्तर बाह्यरूप विविध प्रकार के नयों में जिसका शरीर तप्त है, वह मरण समय में आराधक होता है, जो प्रात्म स्वभाव में निरत है, पर द्रव्य जनित परिग्रह रूप सूखरस से रहित है, राग-द्वेष का मथन करने वाला है, वह मरण समय में आराधक होता है, जैसा कि निम्न गाथाओं से स्पष्ट है : १. रइयो दंसणमारो हारो भव्वाण णवसा नव ई। सिरि पासणाह गेहे सुविसुद्ध माह मद्धदसमीए ॥५० गिरि देवमेण गणिणा धाराए संवसंतेण । -दर्शनसार
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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