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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २३० पर शक सं८१३ सन् ८९१ होता है, यह नवमी शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान जान पड़ते हैं । भरतसेन भरतसेन पुन्नाट संघ के विद्वान मीनिभट्टारक के प्रशिष्य और हरिषेण के शिष्य थे । भरतसेन के शिष्य का नाम भी हरिषेण था । उसने कथा कोश की प्रशस्ति में अपने गुरु भरतसेन को छन्द, अलंकार, काव्य-नाटक शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्ता, व्याकरणज्ञ, तर्क निपुण, तत्त्वार्थ वेदी, नाना शास्त्रों में विचक्षण, बुधगणां द्वारा सेव्य और विशुद्ध, विचार वाला बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं: छन्दो लंकृति काव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो, वेत्ता व्याकरणस्य तर्क निपुणस्तत्वार्थवेदी परं । नाना शास्त्र विचक्षणो बुधगणैः सेव्यो विशुद्धाशयः । सेनान्तोभरतादिरत्रपरमः शिष्यः बभूवक्षितौ ॥ ६ ॥ - हरिषेण कथा कोश प्रशस्ति इससे मालूम होता है कि इन्होंने किसी काव्य ग्रन्थ की रचना की थी, किन्तु दैवयोग से वह अप्राप्य है । उसके नामादि की सूचना भी नहीं मिलती। हरिषेण ने अपना कथा कोश शक सं० ८५३ सन् १३१ में समाप्त किया है । उसमें से कम से कम बीस वर्ष कम करने पर सन् ६११ भरतसेन का समय हो सकता है अर्थात् वे दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे । हरिषेण ( कथाकोश के कर्त्ता ) हरिषेण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनसे प्रस्तुत हरिषेण भिन्न हैं । ये हरिषेण पुन्नाट संघ के विद्वान थे। इन्होंने हरिवंश पुराण की रचना से १४८ वर्ष बाद उसी बढ़वाण या वर्द्ध मानपुर में कथाकोष की रचना की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस इस प्रकार दी है- मौनिभट्टारक, हरिषेण, भरतसेन और हरिषेण । हरिषेण ने अपने गुरु भरतसेन को छन्द अलंकार, काव्य-नाटक- शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्त्ता, व्याकरणज्ञ, तर्क निपुण, तत्त्वार्थवेदी, और नाना शास्त्र विचक्षण बतलाया है। इससे हरिषेण के गुरु बड़े भारी विद्वान जान पड़ते हैं । इस कथाकोश में छोटी बड़ी १५७ कथाएं संस्कृत पद्यों में लिखी गई हैं । उनमें कुछ कथाएँ, चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, वररुचि, स्वामी कार्तिकेय, श्रेणिक बिम्बसार, आदि की कथाएँ ऐतिहासिक पुरुषों से सम्बन्ध रखती हैं । परन्तु अकलंक समन्तभद्र और पात्र केशरी आदि की कथायें इसमें नहीं हैं। जो प्रभाचन्द्र गद्य कथाकोश में पाई जाती हैं। उसका कारण यह है कि हरिपेण के सामने कथाओं को रचते समय शिवार्य की आराधना सामने रही है, उसमें जिनका उदाहरण संकेत रूप में गाथाओं में उपलब्ध है, उनका नामोल्लेख आदि गाथाओं में किया गया है, उनकी कथा हरिषेण ने लिखी हैं। कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिनका उल्लेख उसमें नहीं है किन्तु अन्यत्र मिलता है, वे भी इसमें सम्मिलित दिखती हैं। हरिषेण ने प्रशस्ति के आठवें श्लोक में 'प्राराधनोद्धृतः वाक्य द्वारा उसकी स्वयं सूचना कर दी है । तुलना करने से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है । इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर में हुई है, कवि ने उसका वर्णन करते हुए उसे है, जिनके पास बहुत सोना था, वह ऐसे लोगों से आवाद था। वहां जैन मन्दिरों का समूह बने हुए थे, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है । - जनालया व्रातविराजतान्ते चन्द्रावदातद्युति सौधजाले । कार्तस्वरा पूर्ण जनाधिवासे श्री वर्धमानाख्यपुरे वसन्सः ॥४ बड़ा समृद्धनगर बतलाया था, और सुन्दर महल वर्धमानपुर की नन्न राज वसति में या उसके किसी वंशधर के बनवाए हुए जैन मन्दिर में हरिवंशपुराण रचा गया था। यह कोई राष्ट्रकूट वंश के राजपुरुष जान पड़ते हैं ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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