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________________ नवमीदशवी शताब्दी के आचार्य २२६ सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने (पृ० २३४) में प्रामाण्यविचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीति के 'स्वतः प्रमाण भङ्ग' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो उस समय अनुपलब्ध है। अतः इन अनन्तकीर्ति का ममय सन् ८५० से १८० से पूर्ववर्ती हे। अर्थात् वे ईमा की १०वीं शताब्दी के वद्विान हैं। अनन्तकोति (नाम के अन्य विद्वान) जैन शिलालेख सग्रह प्रथम भाग में चन्द्रगिरि पर्वत के महानवमी मडप के एक शिलालेख में मूलमघ देशीगण पूस्तक गच्छीय मेघचन्द्र विद्य के प्राणाय पार वीरनन्दी विद्य के शिप्य अनन्तकीति का स्याद्वाद रहस्यवाद निपूण के रूप में उल्लेख मिलता है। यह गिलालेख शक रा० १२६५ मन १३१३ई. का है। इसमे उनका परम्परा के रामचन्द्र के शिप्य शुभचन्द्र के उक्त तिथि में किए गए देवलोक का वर्णन है। अतएव इन अनन्तकीति का समय ईसा की १२वी शताब्दी जान पड़ता है, क्योकि इनके दादागुरु (मेघचन्द्र) का स्वर्गवास ई० सन् १११५ में हो गया था। मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के दिवगत होने की तिथि शक म. १०६८ (मन् ११४६) आश्विन शुक्ला दगमी दी गई है। उसमें मेघचन्द्र के दो गिप्यो का प्रभाचन्द्र अोर वीर नदी का उल्लख है। अस्तु, प्रस्तुत अनन्तकाति ईसा की १२वी सदी के विद्वान है। अनन्तकोतिभट्टारक बान्धव नगर की शान्तिनाथ बम द ई. सन् १२०७ में बनाई गई थी, जब कपदम्ब वंश के किग ब्रह्म का राज्य था। यह वसदि उस समय क्राणर गण तन्त्रिणिगच्छ के अनन्तनोति भट्टारक के अधिकार मे थी' । अतएव इनका समय ईसा की १३वी सदी है। जैन शिलालेख म० भाग ३ १०२३२ होसल वीर बल्लाल देव के २३ वे वर्ष (सन् १२१२) के लगभग के लेग में जक्कले के समाधिमग्ण का वर्णन है। उसमें जक्कले के उपदेष्टा गम के रूप में अनन्तकीति का उल्लेख है। प्रस्तुत अनन्तकीर्ति बान्धव नगर की शान्तिनाथ वदि के अधिकारी अनन्त कीति से अभिन्न है, क्योंकि दोनों का समय लगभग एक है। प्रान्तकोति अनन्तकीति काठासघ माथुरान्वय के पूर्णचन्द्र थे। अोर मुनि प्रश्नमेन के पट्टधर थे। इनके शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक क्षेमकीन थे । उनका समय विक्रम की १८वी शताब्दी है। __ मौनि भट्टारक यह पन्नाट सघ के पूर्ण चन्द्र थे, पोर सम्पूर्ण राद्धान्त रूप बनन किरणों से भव्य रूप कुमुदो को विकसित करने वाले थे, जमा कि हरिपेण कथा काश के प्रशस्ति पद्य मे प्रकट है। यो बोधको भव्यकूमहतीनां नि:शेषराद्धान्तवचोमयूखः। पुन्नाटसघांवरसन्निवासी श्रीमौनिभट्टारक पूर्णचन्द्रः॥ हरिपेण ने कथा कोश का रचना नाल शक म० ८५३ वतलागा, कथा कोश के कर्ता मोनिभटारक से चतर्थ प्रतः रिर्पण के शक म०८/३म से ६० वर्ष कम करन पर शक म० ७९३हा। उसमें ७८ जोडने पर समय सन् ८७१ हुए अर्थात् विक्रम को वो शताब्दो इन का समय हाता है। उनक शिष्य हरिपेण थे। श्रीहरिषेण हरिषेण पुन्नाट सघ के विद्वान मोनिभट्टारक क शिष्य थे । जो अपने समय के बड़े भारी विद्वान तपस्वी थे । गणनिधि और जनता द्वारा अभिवन्द्य थे । उक्त कथा कोग के रचना काल में से ४० वर्ष कम करने १. मिडियावल जैनिज्म पृ. २०१ २. सारागमाहित मतिविदुपा प्रपूज्यो नानातपो विधिविधान को विनेय । तस्या भवद् गुणनिधि निताभिवद्य श्री शब्द पूर्व पद को हरिपेण मज्ञः ।।५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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