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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २२८ अपनी माता कल्नब्बे द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए 'कादलूर' नाम का एक गाव शक संवत् ८८४ सन् ६६२ मे पौषवदी ६ मगलवार के दिन दान दिया था, जब वे मेल्पाटि के स्कन्धावार में थे । (देखो, कालूर का ताम्रशासन, जेन ले० स० भा० ५ पृ. २०) गुणचन्द्र पंडित गुणचन्द्र पंडित कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण के महेन्द्र पण्डित के प्रशिष्य ओर वीरनन्दि पडित के शिष्य थे । इन्हे राष्ट्रकूट सम्राट् अकाल वर्ष कृष्णराजदेव (तृतीय) के सामन्त गग वशाय कुतथ्य पेमाड राना पद्मव्यरसि द्वारा निर्मित दानशाला के लिए नमयर मारसिघय्य न एक तालाब अर्पित किया था । यह लेख शक स० ८७३ सन् ६५० पौष शुक्ला १० मी रविवार को दिया गया था। ( जैन लेख स० भा० ४ पृ० ५३) अनन्तकीति अनन्तकीति अपने समय के यशस्वी तार्किक हो गये है । लघ सर्वज्ञसिद्धि के अन्त में उन्होंने लिखा है समस्तभुवन व्यापि यशसानन्तकीर्तिना । कृतेय सुज्ज्वला सिद्धिर्धर्मज्ञस्य निरर्गला || इनके बनाये हुए लघु सर्वज्ञसिद्धि और वृहत्सर्वज्ञसिद्धि नाम के दो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। उनमें कोई प्रशस्ति आदि नही है जिसमे उनकी गुरु परम्परा ओर समयादि का पता लग सके । न्याय विनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में ग्रनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न पद्य में किया है : श्रात्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ।। इससे स्पष्ट है कि अनन्तकोति ने 'जीवसिद्धि' नाम के ग्रथ का प्रणयन किया था। अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका के पृ० २३४ के प्रमाण विचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीर्ति के 'स्वतः प्रमाणभङ्ग' प्रकरण का • उल्लेख निम्न प्रकार किया है: " शेष मुक्तवत् प्रनंतकोतिकृतेः स्वतः प्रामाणयभङ्गादवसेय मेतत् । " अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका पृ० ७०८ के सर्वज्ञमिद्धि प्रकरण में - 'अनुपदेशालिङ्गा व्यभिचारिनष्टमुप्टयाद्युपदेशान्यथानुपपत्तेः' हेतु का प्रयोग किया है जो अनन्तकीर्ति की लघु और वृहत्सर्वज्ञमिद्धि ( पृ० १०१) का मूल हेतु है । इसमें स्पष्ट है कि अनन्तकीति अनन्तवीर्य से पूर्ववर्ती है । सिद्धि विनिश्चय के टीकाकार श्रनन्तवीर्य का समय डा० महेन्द्रकुमार जी ने सन् ६५६ ई० के बाद और ई० १०२५ से पहले किसी समय हुए बनाया है। ये वही ज्ञात होते हैं जा वादिराज के दादागुरु श्रीपाल के सधर्मा रूप मे उल्लिखित है । प्राचार्य शान्तिमू। - ने जैन तर्कवार्तिवृत्ति 'पृ० ७७ मे स्वप्नविज्ञान यत् स्पष्ट मुत्पद्यते इत्यनन्तीत्यदिय" लिखकर स्वप्न ज्ञान की मानस प्रत्यक्ष मानने वाले अनन्तकीर्ति आचार्य का मत दिया है। यह मत वृहत्सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का ही है । उन्होने लिखा है " तथा स्वप्नज्ञाने चानक्षजेऽपिवैशद्यमुपलभ्यते" बृहत्सर्वज्ञसिद्ध पृ० १५१ । शान्तिसूरि का समय ई० ६६३ से ११४७ के मध्य माना गया है'। इससे भी अनन्तकोनिका समय ०६६३ से पूर्ववर्ती है । प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुद के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र का समय सन् १८० से १०६५ ६० है । उन्होंने न्यायमुकुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणों में अनन्तकीर्ति की वृहत्सर्वज्ञसिद्धि का पूरा-पूरा शब्दानुसरण किया है । इसमे भी अन्तकीर्ति प्रभाचन्द्र से पूर्ववर्ती है । १. जैन तर्कवार्तिक प्रस्तावना पृ० १४१
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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