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________________ नवम शवीं शताब्दी के आचार्य २२७ इस दिशा में एक मध्यम बुद्धि का आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जिस तरह संग्राम भूमि से भागे हुए कायर पुरुष का होता है । कवि ने अपनी छन्द और अलंकार-सम्बन्धो कमजारा को जानते हुए भी जैनधर्म के अनुराग और और सिद्धसेन के प्रसाद से रचना कर ही डाली । afa ने अपने से पूर्ववर्ती तीन कवियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुख का मुख सरस्वती का प्रवास मन्दिर था । और स्वयंभू-लोक प्रलोक के जानने वाले महान् देवता थे । तथा पुष्पदन्त अलोकिक पुरुष थे । जिनका साथ सरस्वती कभी नहीं छोड़ती थी । कवि अपनी लघुता व्यक्त करते हुए कहता है कि में इनकी तुलना में अत्यन्त मन्द बुद्धि हूं । पुष्पदन्त ने भी चतुर्मुख और स्वयंभू का उल्लेख किया है। पुप्पदन्त ने अपना महापुराण ९६५ ई० में पूर्ण किया है । जयकीर्ति कवि कन्नड प्रान्त के निवासी थे। इनकी एकमात्र कृति छन्दोनुगासन है, जिसमें वैदिक छन्दों को छोड़कर आठ अध्यायों में विविध छन्दों का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के अन्तिम दो अध्यायों में कन्नड़ छन्दों का विवेचन दिया हुआ है । ग्रन्थ की रचना पद्यात्मक है जिसमें अनुष्टुभ, आर्या श्रीर स्कन्ध छन्दों का लक्षण पूरी तरह या आंशिक रूप में उसी छन्द में दिया है । यह ग्रन्थ छन्दों के विकास की दृष्टि से केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर और हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन के मध्य की रचना कहा जा सकता है । ग्रन्थ के अन्त में माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद और जयदेव को पूर्वाचार्यों के रूप में स्मरण किया है । किन्तु छन्दोनुशासन के अर्धसम वृत्ताधिकार में पाल्यक और स्वयंभू देव के मत से सुनन्दिनी और नन्दिनी छन्द के लक्षण भी प्रस्तुत किये हैं । "जतौ जरौ शंखनिधिस्तु तौ जरौ, श्री पाल्यकीर्तोश मते सुनन्दिनी ॥ २१ तौ त्रौ तथा पद्म पद्मनिधिर्जतो जरौ, स्वयम्भुदेवेशमते तु नन्दिनी ।। " २२ इससे इनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी से पूर्व होना चाहिए। क्योंकि वि० की दशवीं शताब्दी के आचार्य असगने इनका उल्लेख किया है । कवि असगने अपना 'वर्धमान चरित' म० ६१० में बनाकर समाप्त किया है। छन्दोनुशासन की यह प्रति सं० १९९२ की लिखी हुई है । ओर जैसलमेर के भण्डार में मोजूद है । जयकीर्ति का यह छन्दोनुशासन डा० एच० डी० वैलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चुका है । देखो मि० गोविन्द पैका Jaikirti in the Kannada quarterly Prabudha Karnatak Vol 28 No. 3 Jan. 1942 Mysore College Mysore Bombay University Journal 1847. बप्पन दी प्रशिष्य थे । संभव है ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता ने अपना उक्त ग्रन्थ शक म० ८६१ सन् ६३९ (वि० सं० ६) में समाप्त किया है । इन्द्रनन्दी ने प्रशस्ति में बप्पनन्दी को पुराण विपण में अधिक ख्याति प्राप्त करनेवाला लिखा है । और उन्हें पुराणार्थ वेदी बतलाया है । ( देखा, ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति पद्य ४ ) वासवनन्दी के शिष्य थे । ओर इन्द्रनन्दी प्रथम के इन्द्रनन्दी इन्हीं बप्पनन्दो से दीक्षित हो। क्योंकि इन्द्रनन्दी बन्धुषेण प्राचार्य बन्धुषेण - (यापनीय संघ के आचार्य) थे, जो निमित्तज्ञान में पारगत थे। और दामकीर्ति के ज्येष्ठ पुत्र जयकीर्ति के गुरु थे । (जेन लेख सं० भा०२ पृ० ७५ एलाचार्य सूरस्त गणके विद्वान, रविचन्द्र के प्रशिष्य और रविनन्दी आचार्य के शिष्य थे । जो तप के अनुष्ठान में तत्पर रहते थे, और बड़े विद्वान थे । तथा कोगल देश के निवासा थे। उन्हें गंगवशीय राजा मारसिंह (द्वितीय) नं
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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