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________________ २२६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ को देखकर हेलाचार्य नीलगिरि' के शिखर पर गए। वहां उन्होंने 'ज्वालामालिनी' देवी की विधि की विधि पूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या चाहते हो? तब मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता। सिर्फ कमलथी को ग्रह मुक्त कर दीजिये। तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिखकर दिया और उसकी विधि बतला दी। इससे उनकी शिप्या ग्रह मुक्त हो गई। फिर देवी के आदेश से उन्होंने 'ज्वालिनीमत' नामक ग्रन्थ की रचना की। पोन्नर की कनकगिरि पहाड़ी पर बने आदिनाथ के विशाल जिनालय में जैन तीर्थर और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी देवी की है। उसके पाठ हाथ हैं दाहिनी पार के हाथों में मंडल अभय, गदा और त्रिशूल है । तथा बाई ओर के हाथों में शंख, ढाल, कृपाण और पुस्तक है। मूर्ति की प्राकृति हिन्दनों की महाकाली से मिलती जुलती है। पोन्नर मे लगभग तीन मील दूर 'नीलगिरि' नामक पहाड़ी है, उस पर हेलाचार्य की मूर्ति अंकित है। हेलाचार्य से वह जान उनके शिष्य प्रशिप्य गंग मुनि, नीलग्रीव, बीजाव, शान्तिरसव्वा प्रायिका, और विरुव क्षुल्लक को प्राप्त हुना। वह क्रमागत गुरु परिपाटी मे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दि मुनि के लिए व्याख्यान किया। इन दोनों ने उस शास्त्र का ग्रन्थ और अर्थतः इन्द्रनन्दि के प्रति कहा। तब इन्द्रनन्दि ने उस कठिन ग्रन्थ को अपने मन में अवधारण करके ललित आर्या और गीतादि छन्दों में ग्रन्थ परिवर्तन (भाषा परिवर्तनादि) के साथ रचा। संभवत: हेलाचार्य का यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया था, इसी से इन्द्रनन्दी ने उसे भाषा परिवर्तनादि से संस्कृत भाषा में बनाया। जिसकी श्लोक संख्या का प्रमाण साढ़े चार सौ श्लोक बतलाया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना राष्ट्र कूट नरेश कृष्ण तृतीय की संरक्षता में शक सं०८६१ (ई०सन् ६३६) में की। इसमे हेलाचार्य का समय यदि उनके शिप्य शिष्यादि के समय क्रम में से कम से कम एक शताब्दी और पच्चीस वर्ष पूर्व माना जाय, जो अधिक नहीं है तो हेलाचार्य के ग्रन्थ का रचना काल शक सं० ७३६ (ई० सन् ८१४) हो सकता है। कवि हरिषेण मेवाड देश में विविध कलाओं में पारंगत हरि नाम के एक महानुभाव थे, जो उजपुर के धक्कडवंशज थे। इनके एक धर्मात्मा पूत्र था, जिसका नाम गोवड्ढण (गोवर्धन) था उसकी पत्नी का नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ श्रद्धा रखती थी। इन दोनों के हरिषेण नाम का एक पुत्र हुआ, जो विद्वान कवि के रूप में प्रसिद्धि को पात हाया। उसने किसी कार्यवश चित्रकूट (चितौड़) छोड़ दिया, और वह अचलपुर चला गया। उसने वहां छन्द और अलंकार शास्त्र का अध्ययन किया। इसके गुरु बुध सिद्धसेन थे। जैसा कि ११वीं संधि के २५ वें कडवक के घने 'सिद्धसेण पय दहि' वाक्य से सूचित होता है। हरिषेण ने इनकी सहायता से धर्मपरीक्षा नामकी रचना की। जो जयराम की प्राकृत गाथाबद्ध पूर्ववनी धर्मपरीक्षा का पद्धडिया छन्द में अनुवाद मात्र है। कवि ने इसे वि० सं० १०४४ (सन् १८७) में बनाकर समाप्त की थी। प्रस्तत ग्रन्थ में ११ सन्धिया और २३८ कडवक हैं। सन्धि की प्रत्येक पुष्पिका में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थो का निरूपण करने के लिये हरिषेण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि निम्न संधिवाक्य से प्रकट है इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गहिटियाए बुह हरिसेणकयाए एयारसमो संधि सम्मत्तो। कर्ता ने ग्रन्थ रचना का कारण निर्दिष्ट करते हुए बतलाया है कि एक बार मेरे ध्यान में पाया कि यदि कोई प्राकर्षक पद्य रचना नहीं की जाती है तो इस मानवीय बुद्धि का होना बेकार है। और यह भी संभव है कि १. See Jainism in South India p. 47 २. विकम णिय पग्वित्तिय कालए, गणएवरिस सहसचउतालए। इय उप्पण्ण भवियजरण सहयरु डंभरहिय धम्मासयसायरु ॥ -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २, २३ टि.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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