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________________ नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य एकादश शताकोणे नवाशीत्युत्तरे परे। संवत्सरे शुभे योगे पुष्यनक्षत्रसंज्ञके ॥ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवो दिने । सिद्धा सिद्धप्रदाटका गणभृत्कीतिविपश्चितः ॥ निस्त्रशजिताराती विजयश्री विराजान । जर्यासह देव सौराज्ये सज्जनानन्ददायिना ।। जर्यासह रेव का राज्य स० ११५०म ११६६ तक वहा रहा है । अत: गणधर कीति के उक्त समय में कोई वाधा नहीं पाती। हैदरावाद के परभनी नामक स्थान से एक ताम्रपत्र प्राप्त हना है जो यशस्तिलक की रचना मे सात वर्ष पश्चात गोमदेव को दिया गया था। उममे चालुक्य सामन्तो की तगावली दीई है, जो टम प्रकार है: युद्धगल १ अरकेशरी, नर्गमह (भद्रदेव) मल नाटुग १, युद्ध मत्ल अरिकेगर्ग नरसिह २ (भद्रदेव), अग्रिकेशरी :, वड़िग २ (वाद्यग) और अरिकेशरी । गी गड्डिग द्वितीय या वाद्यग वे गज्यकाल १५६ ई. में सोमदेव ने अपना काव्य रचा था। इमी ताम्रपत्र में वाद्यग के पुत्र अरिकेसरी चतुर्थ शक सं० ८८८ (६६६ ई०) में गभधाम नामक जिनालय जीर्णोद्धार्थ मोमदेव को एक गाव देने का उल्लेख है। यह जिनालय लेबल पाटक नम की गजधाना में वाद्यग ने बनवाया था। इससे स्पष्ट है कि उस समय (९६६ ई०) में सोमदेव गभधाम जिनालय के व्यवस्थापक थे । और अपनी साहित्यिक प्रवत्ति में मलग्न थे, क्योंकि इम ताम्रपत्र में सोमदेव की यशोधर चरित के माथ-साथ 'स्याद्वादोपनिषत' नामक ग्रन्थ का भी रचयिता लिग्वा है। शोधाड नं० २२ में डा० ज्योतिप्रसाद जी ने सोमदेव सम्बन्धी एक शिलालेख का परिचय दिया है। प्रस्तगत निजामराज्य के करीम नगर जिले में स्थित 'लमूलवाड' नामक स्थान में एक पापाणखण्ड प्राप्त हया है। जिसमें संस्कृत के दो पद्य है। जिनमें लिखा है कि लम्बुल पाटक के चालुक्य वशी नरेश वद्दिगने गौड़ सघ के प्राचार्य देश से (अथवा उनके हितार्थ) उक्त नगर में एक जिनालय का निर्माण कराया था। अभिलेख में सूचित किया है कि यह गजा वढिग सपादलक्ष (सवालाग्य) देश के शामक युद्धमल्ल की पाचवी पीढ़ी में हरा था। यह वही शुभ धाम जिनालय है जिसके संरक्षण के लिए चालुक्य नरेश अरिकेसरी ने शक स ८८८ (सन ई) में अपने गरु सोमदेव की एक ताम्र शासन अपित किया था। यह लेख महत्वपूर्ण है इसमे शुभधाम जिनालय के स्थल का पता चल जाता है । संभव है वहां खुदाई करने पर पीर भी अदप प्राप्त हो जाय । मूल शिलालेख के वे पद्य भी प्रकाशित होना चाहिए। काल योगीश मलसघ, देशीयगण और पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। यह गोल्लाचार्य के विद्वान् शिप्य थे। इन्होंने किसी ब्रह्म गक्षस को अपना शिष्य बना लिया था। उनके स्मरण मात्र में भृतप्रत भाग जाते थे। इन्होंने करज के तेल को घत रूप में परिवर्तित कर दिया था। यह बड़े प्रभावशाली थे। इनका समय-१०वीं का अन्त और ११वीं शताब्दी का प्रारम्भ होना चाहिए। - - - - १."(ले) बल पटकनामधेय निजगजधान्यां निजपितुः श्री मद्वन्गग्य शभधाम जिनालयाग्य बस (ते ) खण्डस्फटित नवमधाकर्म बलि निवेद्यार्थं शकाब्देष्वप्टाशीत्यधिकेष्वप्टशतेपुगतेष""" ते श्रीमदरिकेसरिणा""श्रीसोमदेवसरये""""बनिकट पुलनामा ग्रामः'''''दत्तः।" -यगस्तिलक. दण्डि० क० ५० ५ २. "विरचिता यशोधरचरितस्य कर्ता स्याद्वादोप निषदः कवि (वयि) ता।"
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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