SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ यस्तिलक में आपकी नैसगिक एवं निखरी हुई काव्य प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव होता है । ये महा कवि थे आर काव्य कला पर पूरा अधिकार रखते थे । यशस्तिलक में जहा उनकी काव्य-कला का निदर्शन होता है वहा तीसरे अध्याय या पाश्वास में राजनीति का, और ग्रंथ के अन्त में धर्माचार्य एव दानिक होने का परिचय मिलता है। इस ग्रन्थ पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है। पर वह पूर्वार्ध पर ही है, उत्तरार्ध पर नही है । प्राचार्य सोमदेव ने शक सवत ८८१ (६५०ई०) में मिद्धार्थ सवत्सर में चत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन, जब कृष्णराज देव (तृतीय) पाण्डेय, मिहल, चोल ग्रोर चेर आदि राजाओ को जीत कर मेल्पाटी में शासन कर रहे थे। वहा मान्य पेट में यगम्तिलक नही रचा गया: किन्त काणराज के सामन्त चाक्य वा रिकेसरी के ज्येष्ठ पुत्र वागराज की राजधानी गगधाग मे रचना की थी। और उसी सिद्धार्थ रावत्मर में पापदन्त ने महाराण की रचना का प्रारम्भ किया था। पुष्पदन्त ने महापुराण की उत्थानिका में लिखा है कि-सिद्धार्थ सवत्सर मे, जव चोलगज का सिर, जिम पर देशो का जदा ऊपर की ग्रोरवधा हमामा, काट कर नाजाधिराज तुडिग (कृष्णराज ततीय) मंपाडि (मेलपार्टी) नगर में वर्तमान में प्रसिद्ध नामवान पुगण का कहता है। नीतिवाक्यामत-राजनीति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह गम्कृत साहित्य का अनुपम रत्न है।म का प्रधान विषय राजनीति है। राजा र राज्य शासन गे सम्बन्ध रखने वाली सभी आवश्यक वाता का सम्: विवेचन किया गया है । ग्रन्थ गद्य सूत्री में निबद्ध है । ग्रन्थ की प्रतिपादन गली प्रभावशालिनी पार गंभीर है। आचार्य रामदेव ने डा० राघवन के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना कन्नाज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल द्वितीय की प्ररणा से की थी। इनका एक शिलालेख वि. स. १००३ का प्राप्त हुआ है और दूसरा वि० स०१००५ का उनके उत्तराधिकारी देवपालका । यशस्तिलक के 'कान्यकु-ज महोदय' श्रार महेन्द्रामर मान्य धी' वाक्य भी इसकी पुष्टि करो । नीतिवाक्यामृत में उसकी रचना का स्थान पार समय नही दिया। इस ग्रन्थ पर कनड़ी भापा के कवि नमिनाथ का टीका है, जो किसी राजा के सन्धि विग्रहिक मत्री थे। उन्होंने मेघनन्द्र विद्यदेव और वोग्नन्दि का रमरण किया है। नेमिनाथ ने यह टीका वीरनन्दि की आज्ञा से लिखी है। मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक स० १०७ (वि० स० ११७२) में हुआ था। और वीरनन्दि ने प्राचारसार की कनडी टीका शकमपत १०७ (वि०म० १२११) मलिखी थी। अत: नेमिनाथ १२वी शताब्दी के अन्त और तेरह्वी के प्रारम्भ में हए है। तीसग ग्रन्य 'ध्यान विधि' या मध्यात्मनगिणी, जिसके लोक गाना चालीम है। हममें ध्यान और उसके भेद आदि का वर्णन दिया है। टम पर अध्यात्मतगणी नाम को एक सात टीका: । जिमके कर्ता मुनि गणधर कोनि है । जिसे उन्होंने यह टीका वि०म०११८र में चेत्र नुवना नमी रविवार के दिन गजगत के चालुक्य वशीय गजा जयसिह या सिद्धराज जयसिह के राज्य काल में बनाकर समाप्त की है। जमा कि उसकी प्रगस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है: १. गानाकानातीतसवमरे वाटनगीधित प गतेप यान (८८१) गिदार्थ गवत्सगनगन चन माग मदन गोदल्या पाण्ड्य-मिहन-चोर चेग्मभनीन्मगेगी-माध्यम पापी प्रवधमान गयाभावे श्रीकृष्णगनदेवे मान पादपद्गो जीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दगहासमानाधिपतेश्चातस्य कुल जन्मन. मागन्तयामरणे श्रीमदग्विसरिण प्रथम पुत्रस्य श्रीगवदाग राजम्य लक्ष्मी-प्रवर्धमानवमधागा गगगधागया विनिर्मापिमिद यानि । - यशस्तिलन प्रशरित २. ज कहमि पुगगु पसिद्धणामु, सिद्धत्थ वरिमि भुबग्गाहिगम् । उब्बद्ध जूड भूभगभीम, तोटेपिग चोन्ही तण उमीम् । भवणेनकरायु गयाहिराउ, जहि अच्छा तुटिगु महागाभाउ । त दीरण दिव्य धरण गाय पयर, महि परिभमनु मेपाटि गायर ।। -महापुराण उत्थानिका
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy