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________________ २२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि असग जीवन-परिचय-कवि असग दशवी शताब्दी के विद्वान थे । उनके पिता का नाम 'पटुमति' था, जो धर्मात्मा और मुनि चरणों का भक्त या, पार शुद्ध सम्यक्त्व से युक्त श्रावक था। ओर माता का नाम 'वैरित्ति' था, जो शुद्ध सम्यक्त्व मे विभूपित थी । असग इन्ही का पुत्र था। इनके गुरु का नाम नागनन्दो था, जो शब्द समयार्णव के पारगामी अर्थात व्याकरण काव्य और जेन शास्त्रो के ज्ञाता थे । असग के मित्र का नाम जिनाप्य था । यह भी जैन धर्म में अनुरक्त ग्वीर, परलोक भीक एव द्विजातिनाथ (ब्राह्मण) होने पर भी पक्षपात रहित था ? कवि अमग ने भावकोति मुनि के पादमूल में मौद्गल्य पर्वत पर रहकर और श्रावक के व्रतों का विधिक अनुष्ठान कर ममता रहित होकर विद्याध्ययन करने का उल्लेख किया है। और बाद को चोल देश में जनतोपकारी गजा श्रीनाथ के गज्य को पाकर और वहा की वरला नगरी में रहकर जिनोपदिष्ट आठ ग्रन्थो की रचना करने का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन आठ ग्रन्थो के नामों की कोई सूचना नही की गई। कवि ने वर्धमान मरिन, की रचना वि० स०६१० (ई० सन:५३ में की है। पौन्न कवि ने अपने शान्तिनाथ पुराण में ९५० ई० में अपने को प्रसग के नमान 'कन्नड कवितेयोल असगम, बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि असग कवि के वर्धमान चरित की रचना सन ६५०ई० से पूर्व में हो चुकी थी, और वह प्रचार में आ गया था । अतएव वीरचरित की रचना शक स०६१० नहीं हो सकती। वह विक्रम स० ६१० की रचना निश्चत है। कवि की दो कृतियाँ उपलब्ध है वर्धमान चारत और शान्तिनाथ चरित । कवि ने वर्धमान चरित्र प्रार्यनन्दी की प्रेरणा मे बनाया था। अन्तिम तीर्थकर भगवान वर्धमान (महावीर) का चरित अकित किया गया है। चरित्र चित्रण में कवि में कुशल है और उसे कवि ने सस्कृत के प्रसिद्ध विविध छन्दों- उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी. वंशस्थ, शालिनी, अनुप्टप मन्दाक्रान्ता, शादलविक्रीडित, स्वागता, प्रहर्षिणी, हरिणि, और स्रग्धरा आदि वत्तों कया है। ग्रन्थ १८ सर्गों में पूर्ण हमा है। कवि ने चरित को जन प्रिय बनाने के लिये शान्तादि रसों और उपमा, उत्प्रेक्षादि अलंकारों को पुट देकर रमणीय, सरस और चमत्कार पूर्ण बना दिया है। ग्रन्थ में महा काव्यत्व के सभी अगो की योजना की गई है । महवीर का जीवन परिचय उनके पूर्व भवों से संयोजित है। उससे उनके जीवन विकास का क्रम भी सम्बद्ध है। यद्यपि वर्धमान का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण के ७४वें पर्व से लिया गया है, परन्तु उसे काव्योचित बनाने के लिये उनमें कुछ काट-छांट भी की गई है। किन्तु पूर्व कथानक को ज्यों का त्यो रहने दिया है, कवि ने पुरवा और मरीचि के आख्यान को छोड़ दिया है। और श्वेनातपत्त नगरी के राजा नन्दिवर्धन के पुत्र जन्मोत्सव से कथानक गुरु किया है। ग्रन्थ में घटनाओं का पूर्वा पर क्रम निर्धारण, उनका पररपर सम्बन्ध, और उपाख्यानों का यथा स्थान संयोजन मौलिक रूप में घटित हुआ है। कवि को उसमें सफलता भी मिली है। कृति पर पूर्ववर्ती कवियो के चरित्रो का उस पर प्रभाव होना सहज है। इस महाकाव्य की शैली कवि १. मवत्सरे दशनवोत्तर वर्षयुक्ने (६१०) भावादिकीनिमुनिनायकपादमूले ।। मौद्गल्य पर्वत निवास ब्रतम्थमपत्सच्छावक प्रजनिते सतिनिर्ममत्वे ॥१०५ विद्या गया प्रपठितेत्यसगाह्वकेन श्रीनाथराज्यमखिल-गनतोपकारि। प्रापे च चौडविपये बग्लानगर्या ग्रन्थाटक च ममकारि जिनोपदिष्ट ॥१०६ --जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भा० १, प्र० १०७-८ २. "मुनिचरगारजोभिः सर्वदा भूतधात्र्याप्रति समयलग्नः पावनीभूतमूर्धा । उपगम इव मूर्तः शुद्ध समम्यक्त्वयुक्तः पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥" "वैरेति रित्यनुपमा भवि तस्य भार्या सम्यक्त्व शुद्धिरिव मूर्तिमती पराभूत् ।"२४४ पुत्रम्तयोग्सग इत्यवदात्तकीयोगसीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः । चद्राश शभ्रयशमो भुवि नाग नद्याचार्यग्य शब्द समयार्णव पारगस्य ॥२४५ तम्यऽभव भव्य जनम्य मेव्यः सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । ख्यातोऽपि गौर्यात्परलोकभीरु द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ॥२४६।।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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