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________________ नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य २२१ यह पद्य एक वादी के प्रति कहा गया है कि तुम समस्त दर्शनो के तर्क में अकलंक देव नही हो, और न प्रागमिक उक्तियो मे हस सिद्धान्त देव हो, न वचन विलास मे पूज्यपाद हो, तब तुम कहो इस समय सोमदेव के साथ कैसे याद कर सकते हो? उसी प्रशस्ति के अन्तिम पद्य में कहा गया है कि सोमदेव की वाणी वादिरूपी मदोन्मत्त गजो के लिये सिहनाद के तुल्य है । वाद काल में वृहस्पति भी उनके सन्मुख नही ठहर सकता' । सोमदेव ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध मे लिखा है कि मै छोटो के साथ अनुग्रह, वराबरी वालो के साथ सजनता और बडो के साथ महान आदर का वर्ताव करता है। इस विषय मे मेरा चरित्र बड़ा ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐठ दिखाता है, उसके लिये, गर्वरूपी पर्वत को विध्वस करने वाल मेरे वज्र वचन कालस्वरूप हो जाते है। "अल्पेऽनुग्रह धीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तो ऽय मुदात्त चित्त चरिते श्री सोमदेवे मयि । यः स्पर्धेत तथापि दर्पदुढ़ता प्रौढिप्रगाढाग्रह स्तस्या वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥" आचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक की उत्थानिका में कहा है कि जैसे गाय घाम खाकर दूध देती है वैसे ही, जन्म से शुष्क तर्क का अभ्याग करने वालो मेरी बुद्धि मे काव्य धारा निमृत हुई है। उसमे स्पष्ट है कि सामदेव ने अपना विद्याभ्यास तर्क से प्रारम्भ किया था और तर्क ही उनका वास्तविक व्यवसाय था। उनकी तार्किक चक्रवर्ती और वादीभ पचानन आदि उपाधियाँ भी मका समर्थन करती है। यशस्तिलक चम्पू मे ज्ञात होता है कि मामदेव का अध्ययन विशाल था। और उस समय में उपलब्ध न्याय, नोति, काव्य, दर्शन, व्याकरण आदि साहित्य में वे परिचित थे। यद्यपि सोमदेवाचार्य ने अनेक ग्रन्थो की रचना की है, यशस्तिलक चरपू, नौनिवाक्यामृत, अध्यात्मतरगिणी (ध्यान विधि ) युक्ति चिन्तामणि, त्रिवर्ग महेन्द्रमातलि सजल्प, पण्णवति प्रकरण, स्याद्वादोपनिपत आर सुभापित ग्रन्थ। इन रचनायो मे से इस समय प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध है। शेप ग्रन्था का केवल नामोल्लेख ही मिलता है । नीतिवाक्यामृत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेनाचार्य ने 'पण्णवति' प्रकरण, युक्ति चिन्तामणि सूत्र, महेन्द्रमातलिसजल्प और यशोधरचरित की रचना के बाद ही नोतिवाक्यामृत की रचना को ग यशस्तिलक चम्पू-यशस्तिलक चम्पू के पाच आश्वासो मे गद्य-पद्य में राजा यगोधर की कथा का चित्रण किया गया है। राजा यशोधर की कथा बड़ी ही करुणा जनक है।रिमा के परिणाग का बडा ही सुन्दर अकन किया गया है। आटे के मुर्गा मुर्गी बनाकर मारने से अनेक जन्मो मे जो घोर कप्ट भोगने पडे, जिनको मूनने मे रोगटे खडे हो जाते है। प्राचार्य सोमदेव ने यशोधर ओर चन्द्रमति के चरित्र का यथार्थ नित्रग किया। प्रोर अवशिष्ट तीन प्राश्वासो मे उपासकाध्ययन का कथन किया गया है-श्रावक धर्म का प्रतिपादन है। इनमें ४६ कल्प है जिनके नाम भिन्न भिन्न है। प्रथम कल्प का नाम 'समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन है। जिसमें सभी दर्शनो की समीक्षा की गई है। दूसरे कल्प का नाम 'आप्तस्वरूप मीमारान' है, जिसमे प्राप्त की मामासा करते हए उनके देवत्व का निरसन किया है। तीसरे का नाम 'पागमपदार्थ परीक्षण' है-जिसमे पहले देव की परीक्षा करने के बाद उनके वचनो को परीक्षा करने का निर्देश किया गया है। चौथे कल्प का नाम 'मूढतोन्मथन' है जिसमे मूढताम्रो का कथन किया गया है। इसीतरह अन्य कल्पो का विवेचन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि सोमदेव का उपासकाध्ययन कई दृष्टियो से महत्वपूर्ण है । और प्रसगवश जैनधर्म के सिद्धान्तो का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है । १ दन्धि बोधविध सिन्धुमिहनादे, वादि द्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे । श्री मोम देवमुनिपे वचना रसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽरित न वादकाले ।। २. परभणी ताम्रपत्र मे उन्हे सुभाषितो का कर्ता भी लिखा है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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