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________________ १५६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ परवादिमल्ल के समकालीन राजा, जिसकी सभा में उन्होंने अपने नाम की सार्थकता प्रकट की थी, राष्ट्रकट राजा कृष्णराज प्रथम शुभतुग (७५७-७७३) था । संभव है इन्हीं परवादिमल ने धर्मोत्तर कृत न्यायविन्दु टिप्पण पर टीका लिखी हो। अतएव इन परवादि मल्ल प्रथम का समय ७७० ये ८०० के लगभग हो सकता है। यह प्रशस्ति मल्लिपण मुनि के शक सं० १०५० (सन् ११२८) में उनके शरीर त्याग करने की स्मृति में उत्कीर्ण की गई थी। उक्त प्रशस्ति मे अकलक का साहसतुग की सभा में वादियों को अपने नाम के अर्थ का करना इस बात का साक्षी है क प्रशस्तिकार इन दो राजाओं को पृथक समझते थे। इस प्रशस्ति में अनेक प्राचीन प्राचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है। महावादी समन्तभद्र, महाध्यानी सिंहनन्दि, षण्मासवादी वक्रग्रीव, नवस्त्रोतकारी वज्रनन्दि, विलक्षणकदर्थन के कर्ता पात्रकेसरी गुरु, सुमति सप्तक के रचयिता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कमारमेन, मुनि श्रेष्ठ चिन्तामणि, दण्डि कवि द्वारा स्मत कवि चड़ामणि श्री वर्धदेव, और सप्ततिवाद विजेता महेश्वर मुनि के बाद घटावतीर्ण तारादेवी के विजेता अकलंक देव का स्तवन किया गया है। इससे इस प्रशस्ति की महत्ता स्पप्ट है। रविषणाचार्य रविषेणाचार्य-ने अपने सघ पार गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नही किया। परन्तु सेनान्त नाम होने से वे सेनसब के विद्वान जान पड़ते है। इन्होंने अपना गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार प्रकट किया है : प्रासोदिन्द्रगुरो दिवाकर यतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनि स्तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥ इन्द्र गुरु के दिवाकर यति, दिवाकर यति के अर्हन्मुनि, अर्हन्मुनि के लक्ष्मणसेन, ओर लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण थे। इसके सिवाय इन्होंने अपना कं ३ परिचय नही दिया। और न यही सूचित किया कि वे किस प्रान्त के निवासी थे। इनके मातापिता कौन थे, का गृहस्थ जीवन कैसा रहा? और मूनिजीवन कब धारण किया और उसमें क्या कुछ कार्य किया। इसका क ई उलेल्ख उपलब्ध नहीं होता। आपकी एक मात्र कृति पद्म चरित या बलभद्र चरित्र है। जो संस्कृत भाषा का एक सुन्दर चरित्र ग्रन्थ है। इसमें १२३ पर्व हैं जिनकी श्लोक संख्या बीस हजार के लगभग है। ग्रन्थ में वोसर्व तीर्थकर मूनिमुव्रत के तीर्थ में होने वाले बलभद्र या राम का चरित वर्णित है। मर्यादा रुषोत्तम रामचन्द्र इतने अधिक लोक प्रिय हए हैं कि उनका वर्णन भारतीय साहित्य में ही नहीं किन्तु भारत से बाहर के साहित्य में भी पाया जाता है। और संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में और प्रान्तीयभापायों में भी उनका जीवन-परिचय निबद्ध मिलता है। आचार्य रविण ने लिखा है कि तीर्थकर वर्द्धमानने पद्म मूनि का जो चरित कहा था वही इन्द्रभूतिगणधर ने धारिणी पुत्र सुधर्मको कहा, और सुधर्म ने जंबू स्वामी से कहा । ओर वही प्राचार्य परम्परा से पाता हमा उत्तर वाग्मी और श्रेप्ट वक्ता कीर्तिधर प्राचार्य को प्राप्त हुआ। उनके लिखे हुए चरित्र को पाकर रविषेण ने यह प्रयत्न किया है। इतना ही नहीं किन्तु अन्तिम १२३वे पर्व के १६६वे श्लोक में उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया १. वर्द्धमान जिनेन्द्रोक्तः मोऽयमों गणेश्वरम । इन्द्रभूति परिप्राप्त मुध : धारिगी भवम् ।।४१ प्रभव क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तर वाग्मिनम् । लिखत नम्य सम्प्राप्य रवेयंत्लोऽयमुदगतः ॥४२॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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