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________________ पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक आचार्य १५५ अकलंक देव-मूलसंघ देशोयगण पुस्तकगच्छ कुन्द-कुन्दान्वय में श्रवण बेल्गोल मठ के चारुकीर्ति पंडित को शिष्य परम्परा में उत्पन्न तथा संगीतपुर (हाइहल्लि दक्षिणी कनाराजिला) के मठाधीश भट्ठारक थे। यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक देव के गुरु, और सम्भवतया प्रकलंक मुनिप के प्रशिष्य थे। इनका समय सन् १५५०-७५ ई० के लगभग है। (देखो अंग्रेजी जैन गजट १९२३ ई० पृ० २१७) प्रकलंकदेव (भटाकलंक देव)-यह मलसंघ देशीगण के विद्वान सधापूर के भद्रारक, विजय नरेश पतिराय (१५८६-१६१५ ई०) से समाढत तथा कर्णाटक शब्दानुशासन नामक प्रसिद्ध कनड़ी व्यकरण और मंजरी मकरन्द शोमकृत संवत्सर शक सं० १५२६ सन १६०४ ई० में समाप्त किया) के रचयिता थे। राय बहादुर मार नरसिंहाचार्य के कथनानुसार यह विभिन्न सम्प्रदायों के न्यायशास्त्र में निष्णात थे।-एक निपूण टीकाकार तथा संस्कृत और कन्नड उभय भाषाओं के व्याकरण के महा पण्डित थे। तत्कालीन अनेक राजारों की सभाम्रों में बाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म को महतो प्रभावना को थी। राजाबली कथं के कर्ता देवचन्न के अनुसार इन्होंने सुधापुर में ही विविवज्ञान-विज्ञान को शिक्षा प्राप्त की थी। यह छह भाषाओं में कविता कर सकते थे। यह कर्णाटक शब्दानुशासन की रचना द्वारा लोकप्रिय थे। इनका समय विक्रम की १७वी शताब्दी का अन्तिम चरण (१६७२) है। (देखो, पार० नरसिहाचार्य कर्णाटक शब्दानुशासन की भूमिका, कर्णाटक विचारते, और राजावलि कथे ।) अकलंक मुनिप-देशीगण पुस्तकगच्छ के कनकगिरि (कार्कल) के भट्टारक थे। शक सं० १७३५ (वि० सं०१८७०) सन् १८१३ ई० में इन्होंने समाधिमरण किया था। (एपि० कर्णाटिका ४ चामराजनगर १४६और १५०) प्रकाशंक देव-इन्हें प्रकलंक प्रतिष्ठा पाठ या प्रतिष्ठाकल्प के रचयिता कहा जाता है। इस ग्रन्थ में हवों शताब्दी से लेकर सोमसेन के त्रिवर्णाचार (उपलब्ध प्राचीनतम प्रति) १७०२ ई० के उल्लेख या उद्धरण आदि पाये जाते हैं । प्रतः इनका समय १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है। __(प्रशस्ति स० पारा पृ० १६५,१६८, १८०।) प्रकलंक-'परमागमसार' नामक कन्नड़ ग्रन्थ के रचयिता। (देखो, जैन सि० भ० पारा की ग्रन्थ सूची पृ०१८) अकलंक-चैत्यवन्दनादि प्रतिक्रमण सूत्र, साध श्राद्ध प्रतिक्रमण और पदपर्याय मंजरी आदि के कर्ता । न्याय कुमुदचन्द प्रस्तावना पृ०५० परवादिमल्ल यह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। इनकी गुरु परम्परा ज्ञात नहीं हुई। पर यह परवादिमल्ल के रूप में प्रसिद्ध थे। मल्लिषेण प्रशास्ति में पत्रवादी विमलचन्द्र और इन्द्रनन्दि के वर्णन के पश्चात घटवाद घटा कोटि. कोविंद परवादि मल्लदेव का स्तवन किया गया है। और राजा शुभतुग की सभा में उन्ही के मुख से अपने नाम की सार्थकता इस प्रकार बतलाई गई है ; घट-बाद-घटा-कोटि-कोविदः कोविदा प्रबाक: परवाविमल्ल-देवो देव एव न संशयः।।२९ येनेयमात्मनामधेर्यानरुक्तिरुक्तानाम पृष्ठवन्तं कृष्णराज प्रति । गहीत पक्षः दितरः परः स्यात् तद्वादिनस्ते पर वादिनः स्युः। तेषां ही मल्लः परवादिमल्लः तन्नाम मन्नाम वदन्ति सन्तः ॥२६ इस उल्लेख पर से स्पष्ट है कि ईसा की १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ में परवादिमल्ल की गणना महानवादी और प्राचीन माचार्यों में की जाती थी। परन्तु उस समय लोग उनके मूल नाम को भूल चुके थे। परवादीमल्ल प्रकलंक देव की परम्प रा के विद्वान जान पड़ते हैं।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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