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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १५७ निर्दिष्टं सकलमतेन भुवनः श्रीवद्धमानेन यत् । तत्त्वं वासव भूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तर वाग्मिना प्रकटितं पपस्य बत्तं मुनेः । श्रेयः साधु समाधि वृद्धि करणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् ॥१६६ अपभ्रंश भाषा के कवि स्वयंभूने पद्म चरित के प्राधार से "कित्तिहरेण अनुत्तरवाएं" वाक्य के साथ अनुत्तर वाग्मी श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर का उल्लेख किया है। परन्तु प्रेमी जी ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि रविषेण ने पद्ममुनि का चरित कीर्तिधर नाम के प्राचार्य के द्वारा लिखित किसी ग्रन्थ पर से ले लिया है और उसी के अनुसार इसकी रचना की गई है। पर कीर्तिधर आचार्य का अन्य कोई उल्लेख इस समय उपलब्ध नहीं है । और न अन्यत्र से उसका समर्थन होता है । जान पड़ता है उनका यह ग्रन्थ विनष्ट हो गया है । इस तरह बहुत सा प्राचीन साहित्य सदा के लिये लुप्त हो गया है। __यहां यह अवश्य विचारणीय है कि विमल सूरि के 'पउमचरित्र' के साथ रविषेण की इस रचना का बहत कुछ साम्य अनेक स्थलों पर दिखाई देता है । इधर पउमचरिय का वह रचना काल भी संदिग्ध है। वह उस काल की रचना नहीं है । प्रशस्ति में जो परम्परा दी गई है उसका भी समर्थन अन्यत्र से नहीं हो रहा है । ग्रन्थ की भाषा और रचना शैली को देखते हुए वह उस काल की रचना नहीं जान पड़ती। उस समय महाराष्ट्रीय प्राकृत का इतना प्रांजल रूप साहित्यिक रचना में उपलब्ध नहीं होता। और ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देश्य के अन्त में गारिणी शरभ आदि छन्दों का, गोति में यमक और प्रत्येक सर्गान्त में विमल शब्द का प्रयोग भी इसको अर्वाचीनता का ही द्योतक है । इस सम्बन्ध में अभी मोर गहरा विचार करने तथा अन्य प्रमाणों के अन्वेषण करने की आवश्यकता है। पर कुवलय माला (वि० सं० ८३५ के लगभग) में दोनों का उल्लेख होने से यह निश्चित है कि पउमचरित पौर पद्मवरित दोनों हो उससे पूर्व को रचना हैं इससे पूर्व का अन्य कोई उल्लेख मेरे देखने में ही वह महावीर निर्वाण से ५३० (वि० सं०६०) की रचना नहीं हो सकती। पुन्नाट संघी जिनसेन (शक सं० ७०५) ने रविषेण और उनके पद्मचरित का उल्लेख किया है। पद्मचरित एक संस्कृत पद्मबद्ध चरित काव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण मौजुद हैं। ग्रन्थ की पर्व संख्या १२३ है। इसमें पाठवें बलभद्र राम, और पाठवें नारायण लक्ष्मण, भरत सीता, जनक, अंजना पवनंजय, भामंडल, हनुमान, और राक्षसवंशी रावण, विभीषण और सुग्रीवादिक का परिचय अंकित किया गया है और प्रसंगवश अनेक कथानक संकलित हैं। राम कथा के अनेक रूप हैं । जैन ग्रन्थों में इसके दो रूप मिलते हैं । ग्रन्थ में सीता के प्रादर्श को सुन्दर झांको प्रस्तुत की गई है । और राम के जीवन की महत्ता का दिग्दर्शन कराया गया १. पंचेवयवाससया दुसमाए तीसवरिस संजुत्ता। वीरे सिद्धमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ।।१०३ -पउम चरिय प्रशस्ति २. देखो, पउमचरिउ का अन्तः परीक्षण, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ पृ० ३३७ ३. जारसियं विमलको विमलंको तारिसं लहइ अत्थं । अमयमइयं च सरसं सरसं चिय पाइग्रं जस्स ॥ जेहि कए रमणिज्जे वरंगपउमाणचरियवित्थारे । कहव ण सलाह णिज्जे ते कइयो जडिय-रविसेणो । -कुवलप्रमाला ४. कृतपद्योदयो द्योता प्रत्यहं परिवर्तिता। मतः काव्यमयी लोकेरवे रिव रवेः प्रिया ।।३४ -हरिवंश पुराण १-३४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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