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________________ १४८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ - डा. महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक का समय ईसाक वीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध करते हए जो साधक प्रमाण दिये हैं। उन्हें यहां दिया जाता है: १-दन्तिदुर्ग द्वितीय, उपनाम साहस तुगकी सभा में अकलंक का अपने मुख से हिमशीतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ की बात कहना ।' दन्तिदुर्गका राज्य काल ई० ७४५ से ७५५ है, और उसी का नाम साहस तुंग था। यह रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भलेख से सिद्ध हो गया है। २-प्रभाचन्द के कथाकोश में अकलंक को कृष्णज के मंत्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताना । कृष्ण का राज्य काल ई० ७५६ से ७७५ तक है। ३-अकलंक चरित में अकलंक के शक सं० ७०० (ई० ७७८) में बौद्धों के साथ हुए महान वाद का उल्लेख होना। ४-प्रकलंक के ग्रन्थों में निम्नलिखित प्राचार्यों के ग्रन्थों का उल्लेख या प्रभाव होना । भर्तृहरि (ई०४ थी ५वीं सदी) कुमारिल (ई० ७ वी का पूर्वार्ध), धर्मकीर्ति (ई० ६२० से ६६०), जयराशि भट्ट (ई०७वीं सदी), प्रज्ञाकर गुप्त (ई०६६० से ५२०), धर्माकरदत्त (अचंट) (ई०६८० से ७२०), शान्तभद्र (ई०७००) धर्मोत्तर (ई० ७००) कर्णगोमि (ई० ८वीं सदी), शांत रक्षित (ई० ७०५ से ७६२) । ५-कविवर धनंजय के द्वारा नाममाला में 'प्रमाणमकलंकस्य' लिखकर अकलंक का स्मरण किया जाना। धनंजय की नाम माला का अवतरण धवला टीका में है। अत: धनंजय का समय ई० ८१० है । ६-जिनसेन के गुरु वीरसेन की धवलाटीका (ई०८१६) में तत्त्वार्थ वार्तिक के उद्धारण होना। ७-आदि पुराण में जिनसेन द्वारा उनका स्मरण किया जाना। जिनसेन का समय ई०७६० से ८१३ है । -हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघीय जिनसेन के द्वारा वीरसेन की कोति को 'अकलंक' कहा जाना। ६-विद्यानन्द आचार्य द्वारा अकलंक की अष्टशती पर अष्ट सहस्री टोका का लिखा जाना । विद्यानन्द का समय ई० ७७५-८४० है। १०-शिलालेखों में अकलंक का स्मरण सुमति के बाद आना' १ गुजरात के कर्क सुवर्णका मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति के शिष्य अपराजित को दिये गए दान का एक ताम्रपत्र शक, सं०७४३ ई०८२१ का मिला है। तत्त्वसंग्रह 3 में सुमतिदेव दिगम्बर के मत का उल्लेख पाता है । तत्त्वसंग्रह पंजिका ८ में बताया है कि सुमति कूमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण करते हैं । अत: सुमति का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये। डा. भट्टाचार्य ने सुमति का समय ई०७२० के पास पास निधारित किया है। यदि ताम्रपत्र ही तत्त्वसग्रहकार द्वारा उल्लिखित सुमति है तो इनके समय को संगति बैठानी होगी; क्योंकि ताम्रपत्र के अनुसार सुमति के शिप्य अपराजित ई०८२१ में हुए हैं और इस तरह गुरु शिष्य के समय में १०० वर्ष का अन्तर होता है। प्रो० दलसुख मालवणिया ने इसका समाधान इस प्रकार किया है। कि-सुमति की ग्रन्थ रचना का समय ई. १. सिद्धि विनश्चय प्र० पृष्ठ ४६ । २. वही प. ४६ । ३. वही पृ. ११ । ४. वही पृष्ठ ४१-३६ । ५. वहीं पृ० ४६ । ६. जैन सा. इ० पृष्ठ १११ । ७. वही पृ०३७ । ८. प्रस्तावना पृ० ३८। ६. हरिवंश पुराण १-३६ । १०. वही पृ. ३६ । ११. वही प्र० पृ० ३८। १२. धर्मोत्तर प्रस्तावना पृ० ५५ । १३. तत्त्व सं० पृ० ३७६, ३८२, ३८३, ३८६, ४६६ ।। १४. "तत्र सुमतिः कुमारिलाद्याघभिमता लोचनामात्रप्रत्यक्ष विचारणर्थमाह" तत्त्व सं० पं० पृष्ठ ३७६ । १५. तत्त्व सं० प्रस्ता पृ०६२। १६. धर्मोत्तर प्रस्ताव पृ० ५५ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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