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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १४७ जिस तरह सर्व शत्रुनों के मान मर्दन में पाप प्रसिद्ध हैं, उसी तरह इस पृथ्वी मंडल में, मैं पंडितों के समस्त मद को नष्ट करने में प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा न हो तो, यह मैं हूं और आपकी सभा में सदा रहने वाले पंडित हैं । इनमें जिसकी शक्ति हो वह निखिल शास्त्रवेत्ता मेरे सामने बोले । मैंने अहंकार के वश अथवा मन के द्वेष से ऐसा नही कहा। किन्तु नैरात्म्यवाद के कारण मनुष्यों के विनाश को जानकर लोगों पर करुणा बुद्धि से मैंने कहा है। राजा हिमशीतल की सभा में मैंने विदग्धात्मा बौद्धों को जीत कर पादसे घड़े का विस्फोटन किया है। यह वह समय था, जब बौद्धविद्वान धर्मकीर्ति के शिष्यों का समुदाय भारतीय दर्शन के रंग मंच पर छाया हुना था । उसके नैरात्म्य वाद के नारों से प्रात्मदर्शन हिल उठा था। उस समय से प्रकलंकदेव ने भारतीय दर्शन की हिलती हुई दीवालों को थामा और इसी प्रयत्न में अकलङ्क न्याय का जन्म हुआ। प्रकलङ्क देव के टीका ग्रन्थ और उनकी मौलिक कृतियां उनके गहनतत्त्व विचार, उनकी सूक्ष्म तर्क प्रवणता और स्वतत्त्व निष्ठा का पग पग पर दर्शन कराती है। कृतियाँ गूढ़ और गंभीर प्रर्थ की द्योतक हैं। प्रकलंकने धर्म कीति की परिहास और अश्लील कटक्तियों का उत्तर भी बड़े मजे से दिया है। ___ अकलक देव बाल ब्रह्मचारी और निर्ग्रन्थ तपस्वी थे। उनके मन में अपने प्यारे भाई के बलिदान की आग बराबर जल रही थी। इससे भी अधिक उनके मानस में बौद्धों के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के प्रचार से और प्रात्मवाद के लुप्त हो जाने से उथल-पुथल मची हुई थी। शिलालेख में उन्हें महधिक लिखा है। इस तरह उनका व्यक्तित्व महान और चरित्र सम्पन्न था। उनकी अकलंक प्रभा से जैन शासन पालोकित हना है, और होता रहेगा। तत्त्वार्थ राज वार्तिक के 'लघुहव्यनृपतिवरतनयः' पद्य के 'वरतनयः' से अकलंक के लघु भ्राता होने की सूचना मिलती है। प्रकलंक देव का समय अकलंक देव यतिवृषभ, श्रीदत्त, सिद्धसेन, देवनन्दी, पात्र केसरी और सुमति देव के बाद हुए हैं। उन्होंने यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति ' के प्रथम अधिकार को दो गाथानों का सस्कृतिकरण कर उन्हें लघीयस्त्रय में शामिल । यतिवषभ का समय ईसा की ५वी सदी है। श्रीदत्त का उल्लेख देवनन्दी ने किया है। अकलंक देव ने प्रवचन प्रवेश के पृष्ठ २३ में सिद्धसेन के 'सन्मतिसूत्र की निम्नगाथा का संस्कृत रूपान्तर किया है : तित्थयर वयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वटिनो य पज्जवणमो य सेसा वियप्पासि ॥१-३ "ततः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष प्रस्तार मूलव्याकारिणौद्रव्यपर्यायाथिको निश्चेतव्यो ।" लघीयस्त्रयस्वो० वृ० श्लोक ६७ आपने देवनन्दी की तत्त्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि ) की पंक्तियों को दार्तिक बनाकर तत्त्वार्थवार्तिक की रचना की है। देवनन्दी का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है। अकलंक ने पात्र केसरी के 'त्रिलक्षणकदर्थन' की 'अन्य थानुपपन्नत्वं" कारिका को न्यायविनिश्चय के मूल में शामिल कर लिया है। इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी है। सुमति देव का उल्लेख शान्ति रक्षित के तत्त्वसंग्रह की पंजिका में पाया जाता है। पंजिका के कर्ता कमलशील हैं, जो नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे। शान्तिरक्षित का समय सन् ७०५ से ७६२ माना जाता है। सन् ७४३ में शान्तिरक्षित ने तिब्बत की यात्रा की थी। उससे पहले ही उन्होंने तत्त्व संग्रह की रचना की है। कमलशील शान्तिरक्षित के समकालीन जान पड़ते हैं। इन उल्लेखों से 'प्रकलंक का समय ईसा की ७वीं शताब्दी से बाद का जान पड़ता है। १ जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनः संज्ञिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलङ्को महधिक: जैन लेख संग्रह भा०३ ले नं०६६७ पृ० ५१८
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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