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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नाम था।' उसने चालुक्य रूपी समुद्र का मथन कर उसकी लक्ष्मी को चिरकाल तक अपने कुल की कान्ता बनाया था, जैसा कि लेख के निम्न वाक्यों से प्रकट हैं : तत्रान्वयेऽप्यभवदेकपतिः [१] थिव्याम् । श्री दन्ति दुर्ग इतिदुर्धर बाहुवीर्यो। चालुक्य सिन्धुमथनोद्भव राजलक्ष्मीम्, यः संबभार चिरमात्मकुलैककान्ताम् ॥५॥ तस्मिन् साहसतुंग नाम्नि नृपतौ स्वः सुन्दरी प्राथिते ।। मल्लिषेण प्रशस्ति से भी साहसतुग और हिमशोतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ का समर्थन होता है । इस कथन से कथाकोश मोर मल्लिषणप्रशस्ति की भी प्रामाणिकता सिद्ध होती है। प्रकलङ्क देव का व्यक्तित्व __इसमें सन्देह नहीं कि अकलकदेव का व्यक्तित्व महान था। शिला वाक्यों और ग्रन्थोल्लेखों के अनुसार समकालीन प्रौर परवर्ती प्राचार्यों पर उनका प्रभाव प्रकित है । वे अपने समय के युगनिर्माता महापुरुष थे । वे अनेक शास्त्रार्थों के विजेता कवि और वाग्मी थे। और थे घटवाद के विस्फोटक सभा चतुर पंडित । बौद्धों के साथ होने वाले प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में, जो घटावतीर्ण तारादेवी के साथ छह महीने तक किया गया था। उसकी विजय इतनी महान थी कि प्रकलंक जैसे वाचंयमी के मुख से निरवद्य विद्या के विभव को उदघोषित करा सकी। प्रशस्ति के वे पद्य इस प्रकार है : चूणि-यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्य निरवद्य विद्या विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते । राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु त्वत्सदृशारणे विजयिनः त्यागोन्नता दुलभाः। तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो। नाना शास्त्र विचार चातुरषियः काले कलो मद्विधाः॥२१॥ (पूर्वमुख) राजन् सर्वारिवर्प प्रविदलन पटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वत्ल्यातोऽहमस्या भुवि निखिल-मदोत्पाटनः पण्डितानाम् । नोचेदेषोऽहमेते तव सदसि सदासन्ति सन्तो महानतो। वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेष-शास्त्रो यदि स्यात् ॥२२॥ नाहंकार-वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजने कारुण्यबुद्धया मया। राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो, बौद्धौघान्सकलान्विजित्य स गतः (स घटः) पादेन विस्फोटितः ॥२३॥ इन पद्यों में प्रकलंक देव की निरवद्य विद्या का विभव प्रकट करते हुए बतलाया है कि-हे साहसतुंग राजन् ! श्वेत आतपत्र (छत्र) वाले राजा बहुत हैं, परन्तु तुम्हारे सदृश रण विजयो और त्यागोन्नत राजा दुर्लभ हैं । उसी तरह अनेक विद्वान हैं; पर कलिकाल में मेरे समान नाना शास्त्रों के विचारों में चतुर बुद्धि वाले कवि वादीश्वर और वाग्मी विद्वान् नहीं हैं। १. देखो; जर्नल आफ वम्बई हि० सो० भाग ६ १० 29-'दी एज आफ गुरु अक लङ्क' तथा सिद्धि विनिश्चय की प्रस्तावना पृ०४६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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