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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १०४ हरण करोगे, मद्य-मांस मध का सेवन करोगे या नीचों की सगति में रहोगे, आवश्यकता होने पर भी दूसरों को अपना धन नही दोगे, और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखायोगे तो तुम्हारा वश नष्ट हो जायगा।' उक्त शिलालेख में सिहनन्दि के द्वारा दिये गए राज्य का विस्तार भी लिखा है। उच्च नन्दिगिरि उनका किला था, कुवलाल राजधानी थी, ६६ हजार देशो पर आधिपत्य था । निर्दोष जिनदेव उनके देवता थे। युद्ध में विजय ही उनका साथी था। जैन मत उनका धर्म था । और दडिग तथा माधव वडी शान के साथ पृथ्वी का शामन करते थे। ईस्वी सन ११२६ के शिलालेख में लिखा है कि सिहनन्दि मुनि ने अपने शिष्यो को अहन भगवान की ध्यानरूपी वह तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो घाति कर्मरूपी शत्रुसैन्य की पर्वतमाला को काट डालती है। यदि ऐसा न होता तो देवी के प्रवेश मार्ग को रोकने वाले पत्थर के स्तम्भ को माधव अपनी तलवार के एक ही वार से कैसे काट डालता ११७६ ई. के एक शिलालेख में भी सिहनन्दि के द्वारा गणराज्य की स्थापना का निर्देश है। सिहनन्टि का समय ईसा को द्वितीय शताब्दी है। आचार्य शिवकोटि (शिवार्य) प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्य अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इन्होंने अपनी कृति आगधना की अन्तिम प्रशस्ति मे अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। वे दोनो गाथाएं इस प्रकार है प्रज्जजिणणदि गणि सव्वगत्तगणि प्रज्जमित्तणंदीणं । प्रवगमियपादमूले सम्म सुत्तं च प्रत्थं च ॥२१६५।। पुव्वायरियणिबद्धा उव जीवित्ता इमा स सत्तीए। प्राराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥२१६६।। इन दोनों गाथाओं मे बतलाया है कि-'आर्य जिननन्दिगणी, आर्य मित्रन दिगणी के चरणो के निक प्रकार सत्र और अर्थ को समझ करके तथा पूर्वाचार्यो द्वारा निबद्ध हई आराधनाओं के कथन का उपयोग करके पाणितलभोजी-करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्य ने यह आराधना ग्रन्थ अपनी शक्ति के अनुसार रचा है। इम प्रशस्ति में प्रार्य जिननन्दिगणी प्रादि जिन तीन गुरुनों का नामोल्लेख किया है वे कौन हैं और कब हा है। उनकी गुरुपरम्परा और गण-गच्छादि क्या है ? इत्यादि बातों के जानने का कोई साधन उपलब्ध नही है। डॉ दितीय गाथा मे प्रयुक्त हा ग्रन्थकार के पाणिदलभोइणा' इस विशेषण पद में इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य शिवकोटि ने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की जब जैनमध दिगम्बर श्वेताम्बर दो विभागों में विभक्त हो चका था। उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए ग्रन्थकर्ता ने उक्त विशेषण पद का लगाना उचित समझा है। फलतः वे उक्त भेद से सम्भवत: सौ-डेढ़सौ वर्ष बाद हुए हों। क्योंकि आराधना ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कुछ गाथा ज्यों के त्यों रूप में पाई जाती है उसके एक दो उदाहरण नीचे दिये जाते है - दंसणभट्टाभट्टा सणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा वेसणभट्टा ण सिझति ॥ आराधना की नं०७३८ पर पाई जाने वाली यह गाथा कुन्दकुन्द के दर्शनप्राभृत की तीसरी गाथा है । इसी तरह कुन्दकुन्द के नियमसार की दो गाथाएँ ६६, ७० माराधना में ११८७, ११८८ नम्बरों पर तथा चरित्र पाहड की ३६वी गाथा आराधना में १२११ पर पाई जाती है। और वारस अणुवेक्खा को दूसरी गाथा आराधना में १७१५ पर ज्यों के त्यों रूप में उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो थोड़े से पाठभेद या परिवर्तनादि के साथ उपलब्ध होती हैं । ऐसी गाथानों का एक नमूना इस प्रकार है
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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