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________________ आचार्य शिवकोटि (शिवार्य) १०५ जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्स कोडोहि । तं पाणी तिहिगुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ -प्रवचनसार ३१३८ जं अण्णाणी कम्म खबेदि भवसयसहस्सकोहि । तं णाणी तिहिगुत्तो खवेदि अन्तो मुहत्तेण ॥ -प्रारा० १०८ इसी तरह चारित्र प्राभृत की गाथा नं० ३१, ३२, ३३, ३५, आराधना में कुछ परिवर्तन तथा पाठ भेद के साथ गाथा नं० ११८४, १२०६, १२०७, १२१०, १८२४ उक्त स्थिति में उपलब्ध होती हैं। इससे स्पष्ट है कि पाराधना के कर्ता शिवार्य कन्दकन्दाचार्य के बहुत बाद हुए हैं। इतना ही नही किन्तु शिवकोटि के सामने समन्तभद्र के ग्रन्थ भी रहे हैं। क्योंकि इस ग्रन्थ में बहत स्वयंभू स्तोत्र के कुछ पद्यो के भाव को अनुवादित किया गया है। संस्कृत टीकाकार ने भी उसके समर्थन में स्वयंभू स्तोत्र के वाक्यों को उद्धृत करके बतलाया है :जह जह में जइ भोगे तह तह भोगेसु वड्ढदे तण्हा। भ० प्रा० गा० १२६२ 'तृष्णाचिषः परिवहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थ विभवः परिवृद्धिरेव ॥" -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८२ बाहिरकरणविसुद्धो अन्भंतर करणसोधणत्थाए। " भ० प्रा० गा०१३४८ बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहणार्थम् ।, -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८३ इसमे भी स्पष्ट है कि शिवार्य समन्तभद्र के बाद किसी समय हुए हैं । और पूज्यपाद-देवनन्दी से पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र के वें अध्याय के २२वें सूत्र की टीका करते हुए पाराधना की ५६२ नं० की निम्न गाथा उद्धृत की है : प्राकंपिय अणुमाणि य जं दिळं बादरं च सुहमं च । छण्णं सद्दा उलयं बहुजणप्रवत्त तस्सेवी ॥ (८१४-८१५) का ॥ इसके अतिरिक्त निम्न दो गाथानों का भाव भी अध्याय ६ सूत्र ६ की टीका में लिया है सहसाणाभोगियदुप्पमज्जिद अपच्चवेक्खणिक्खेवे । देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिव्यित्ति ।। संजोयण मं वकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च । दुट्ठ णिसिट्ठा मणवचकाया भेदाणिसग्गस्स ।। "निक्षपश्चतुर्विधः अप्रत्यनिक्षेपाधिकरणं, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षपाधिकरणं चेति । संयोगो द्विविधः-भक्तपानसंयोगाधिरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति । निसर्गस्त्रिविधः काय निसर्गाधिकरणं, वाडिनसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति । सर्वा० सि०अ० ६ सूत्र की टीका इस सब तुलना पर से शिवार्य या शिवकोटि के रचना काल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वे समन्तभद्र और पूज्यपाद के मध्यवर्ती किसी समय हुए हैं । इनका समय देवनन्दी (पूज्यपाद) से पूर्ववर्ती है। प्राराधना प्रस्तुत ग्रन्थ में २१७० के लगभग गाथाएं हैं जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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