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________________ आचार्य समन्तभद्र १०३ सातवें अधिकार में श्रावक के उन ग्यारह पदों का-प्रतिमाओं का स्वरूप दिया है और बतलाया है कि उत्तरोत्तर प्रतिमाओं के गुणपूर्वकपूर्व की प्रतिमाओं के सम्पूर्ण गुणों लिये हुए हैं। __इस तरह इस ग्रन्थ में थावक के अनुष्ठान करने योग्य समीचीन धर्म का विधिवत कथन दिया हुआ है। यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती के अन्य ग्रन्थों के समान ही प्रामाणिक है और मनन करने के समन्त भद्र की उपलब्ध सभी कृतियां महत्वपूर्ण और अपने अपने वैशिष्टय को लिये हुए हैं। समय प्राचार्य समन्तभद्र के समय के सम्बन्ध में स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के साथ विचार किया है और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाया है' । वे तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) के बाद किसी समय हुए हैं। गृद्धपिच्छाचार्य विक्रम की दूसरी शताब्दी के आचार्य माने जाते हैं। समन्तभद्र उन्हीं के बाद और देवनन्दी (पूज्यवाद )से बहुत पूर्ववर्ती हैं । वे सम्भवतः विक्रम को दूसरो शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। कोंगणि वंश के प्रथम राजा, जो गंग वश के संस्थापक सिंहनन्द्याचार्य से भी पूर्ववर्ती हैं। कोंगणिवर्मा का एक प्राचीन शिलालेख शक स०२५ का उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि कोंगणि वर्मा वि० सं० १६० (ई. सन १०३) में राज्याशासन पर प्रारूढ़ हए थे। अतः प्रायः वही समय प्राचार्य सिंहनन्दी का है। समन्तभद्र उससे पहले हए हैं। क्योंकि मल्लिपेण प्रशस्ति में सिहनन्दि से पूर्व समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। अत: उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध ही है जो मुख्तार साहब ने निश्चित किया है । वह प्रायः ठीक है। सिंहनन्दि मूलसंघ कून्दकून्दाचार्य काणगण और मेष पाषाण गच्छ के विद्वान थे। वे दक्षिण देश के निवासी थे। मिदेश्वर मन्दिर के शिलालेख में उन्हें दक्षिण देशवाशी और गंगमही मण्डल का समुद्धारक बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं दक्षिण-देश-निवासी गंगमही-मण्डलिक-कुल-समुद्ध रणः । श्रीमलसंघनाथो नाम्नः श्रीसिहनन्दिमुनिः ।। मूनि सिंहनन्दि गंगवंश के संस्थापक के रूप में स्मृत किये जाते हैं । सिंहनन्दि ने गंगराजा को जो सहायता दी उसके परिणामस्वरूप गंगराजाओं ने जैनधर्म को बराबर संरक्षण दिया। गंग राजवंश दक्षिण भारत का प्रमुख राज्य रहा है। चौथी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक के शिलालेखों से प्रमाणित है कि गंगवंश के शासकों ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराया, जन मूर्तियां प्रतिष्ठित कराई । जैन साधुओं के निवास के लिए गुफाएँ निर्माण करायीं और जैनाचार्यों को दान दिया। कल्लू रगुड के शिलालेख में बतलाया हैं कि पद्मनाभ राजा के ऊपर उज्जैन के राजा महीपाल ने आक्रमण किया। तब उसने दडिग और माधव नाम के दो पुत्रों को दक्षिण की ओर भेज दिया। वे यात्रा करते हुए 'पेरूर' नाम के सुन्दर स्थान में पहुंचे। उन्होने वहीं अपना पड़ाव डाल दिया और तालाब के निकट चैत्यालय को देखकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दी। वहीं उन्होंने प्राचार्य सिंहनन्दि को देखा, और उनकी वन्दना कर अपने पाने का कारण बतलाया। उसे सुनकर सिंहनन्दि ने उन्हें हस्तावलम्ब दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार और राज्य प्रदान किया। जब उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया तब प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी-'यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को सहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अप १. देखो, जैनासाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ०६६७ २. शिलालेख का आद्य अंश इस प्रकार है : "स्वस्ति श्रीमत्कोंगणिवर्म धर्भमहाधिगज प्रथम गंगस्य दत्तं शक वर्ष गतेषु पंचविंशति २५नेय शुभ क्रितुसंवत्सरसु फाल्गुग शुद्ध पंचमी शनि रोहिरिण....." -देखो, नजन गूढ़ ताल्लुके (मैसूर) के शिलालेख नं० ११०, सन् १८६४ (E. C. III)
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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