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________________ १०२ न्वेषण के उपाय स्वरूप आपकी गुण कथा के साथ कहा गया है जैसा कि उसके नष्ट है :न रागान्नः स्तोत्र' भवति भव-पासच्छविमुनी, न चान्येषु वादपगुणकथाऽभ्यास-खलता । किमु न्यायान्याय प्रकृत-गुणदोषज्ञ मनसां हितान्वेषोपायस्तवगुण-कथा-संग-गदितः ।।६३ इस तरह इस ग्रन्थ की महत्ता धीर गंभीरता का कुछ आभास मिल जाता है। किन्तु ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन किये बिना उसका मर्म समझ में नहीं आ सकता । जैन प्राचीन इतिहास - भाग २ रत्नकरण्ड श्रावकाचार - इस ग्रन्थ में श्रावकों को लक्ष्य करके समीचीन धर्म का उपदेश दिया गया है। जो कमों का विनाशक और ससारी जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम गुण में स्थापित करने वाला है, वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप है। और दर्शनादिक को जो प्रतिकूल या विपरीत स्थिति है वह सम्यक् न होकर मिथ्या है अतएव यह अधर्म है, और संसार परिभ्रमण का कारण है । आचार्य समन्तभद्र ने इस उपासकाध्ययन ग्रंथ में श्रावकों के द्वारा अनुष्ठान करने योग्य धर्म का व्यवस्थित एवं हृदयग्राही वर्णन किया है। जो आत्मा को समुन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है । ग्रन्थ की भाषा प्राञ्जल मधुर प्रौढ़ और अर्थ गौरव को लिये हुए है। यह ग्रन्थ धर्मरत्न का छोटा सा पिटारा ही है। इस कारण इसका रत्नकरण्ड नाम सार्थक है और समीचीन धर्म की देशना को लिये हुए होने के कारण समीचीन धपशास्त्र है । उसका प्रत्येक स्त्री पुरुष को अध्ययन या मनन करना आवश्यक है और तदनुकूल आचरण तो कल्याण का कर्ता है हो । समन्तभद्र से पहले श्रावक धर्म का इतना सुन्दर ओर व्यवस्थित वर्णन करने वाला दूसरा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नही है और पश्चात्वर्ती ग्रन्थकारों में भी इस तरह का धावकाचार दृष्टि गोचर नहीं होता। वे प्रायः उनके अनुकरण रूप है । यद्यपि परवर्ती विद्वानो के द्वारा रचे हुए श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ अवश्य हैं, पर इसके समकक्ष का अन्य कोई ग्रन्थ देखने में नहीं माया प्रस्तुत ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है, जिसको श्लोक संख्या १५० टेढ़सी है । प्रत्येक अध्याय में दिये हुए वर्णन का संक्षिप्तसार इस प्रकार है: प्रथम अध्याय में सच्च प्राप्त बागम और तपोभूत का त्रिमूढता रहित, अष्ट मदहीन और आठ अंग सहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। इन सबके स्वरूप का कथन करने हुए बतलाया है कि अगहीन सम्यग्दर्शन जन्म सन्तति का विनाश करने में समर्थ नहीं होता। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा और लोभ से कुलिगियों को प्रणाम और विनय भी नही करता ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में वटिया के समान है उसके बिना ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय उसी तरह नहीं हो पाते, जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं होती। समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन को महत्ता का जो उल्लेख किया है, वह उसके गौरव का द्योतक है। दूसरे अधिकार में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके विषयभूत चारों अनुयांगों का सामान्य कथन दिया है। तीसरे अधिकार में सम्यक् चारित्र धारण करने की पात्रता का वर्णन करते हुए हिंसादि पाप प्रणालिकाों से विरति को चारित्र बतलाया है। और वह चारित्र सकल और विकल के भेद मे दो प्रकार का है, सकल चारित्र मुनियों के और विकल चारित्र गृहस्थों के होता है, जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप है । चतुर्थ अधिकार में दिखत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत इन तीन गुण व्रतों का मनर्थदण्ड व्रत के पांच भेदों का और उनके पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन किया है। पांचवे अधिकार में ४ शिक्षाव्रतों का और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है। सामायिक के समय गृहस्थ को लोपसृष्ट मुनि की उपमा दी है। छठे अधिकार में सल्लेखना का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके पांच प्रतिचारों का वर्णन दिया है। A
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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