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________________ ६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कारण उनका अपना खास महत्त्व है। जब भगवान पार्श्वनाथ पर केवल ज्ञान होने से पूर्व कमठ के जोव सम्बर नामक देव ने उपसर्ग किया था और धरणेन्द्र पद्मावती ने उन की संरक्षा का प्रयत्न किया था, तब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुया । और वह संवर देव भी काल लब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यकत्व की विशुद्धता प्राप्त कर ली। प्राचार्य महोदय ने भगवान पार्श्वनाथ के कैवल्य जीवन की उस महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है-जब भगवान पार्श्वनाथ को विधुत कल्मष और शमोपदेश ईश्वर के रूप में देखकर वे वनवासी तपस्वी भी शरण में प्राप्त हए थे, जो अपने श्रमको-पचाग्नि साधनादि रूप प्रयास को-विफल समझ गए थे, और भगवान जैसे विधत कल्मष घातिकर्म चतूप्टयरूप पाप से रहित ईश्वर होने की इच्छा रखते थे, उन तपस्वियों की संख्या सात सौ बतलाई गई है१ । यथा : यमीश्वर वीक्ष्यविधूत-कल्मषं तपाधनास्तेऽपि तथा बभूषवः । वनौकसः स्वश्रम-वन्ध्यबुद्धयः शमोपदेश शरणं प्रपेदिरे ॥४ इस तरह यह स्तोत्र ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है, इसमें स्तवन के साथ दार्शनिकता का पूट भी अकित है। स्तुतिविद्या इस ग्रन्थ का मूल नाम 'स्तुतिविद्या' है, जैसा कि प्रथम मगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्यां प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है । यह शब्दालकार प्रधान काव्य ग्रन्थ है । इसमे चित्रालंकार के अनेक रूपों को दिया गया है, उन्हें देखकर आचार्य महोदय के अगाध काव्यकौशल का सहज ही भान हो जाता है। इस ग्रन्थ के कवि नाम गर्भचक्रवाले 'गत्वैक स्तुतमेव' ११६ वे पद्य के सातवे वलय में 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशतं, निकलता है। ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त दिये हैं। आचार्य ने अपने इस ग्रन्थ को 'समस्त गुणगणोपेता' और सर्वालंकार भूषिता' बतलाया है। यह ग्रन्थ इतना गूढ़ है कि बिना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः अशक्य है। इसी से टीकाकार ने 'योगिनामपि दुष्करा' विशेषण दिया है और उसे योगियों के लिए भी दुष्कर बतलाया है। आचार्य महोदय ने ग्रन्थ रचना का उद्देश्य प्रथम पद्य में 'भागमां जये' वाक्य द्वारा पापो को जीतना बतलाया है। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। वास्तव में पापों को कैसे जीता जाता है, यह बडा ही रहस्यपूर्ण विषय है। इस विषय में यहां इतना लिखना ही पर्याप्त होगा कि जिन तीर्थकरों को स्तुति की गई है-वे सब पापविजेता हुए है। उन्होंने काम-क्रोधादि पाप प्रकृतियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है. उनके चिन्तन, वन्दन और अराधन से अथवा पवित्रहृदय-मन्दिर में विराजमान होने से पाप खड़े नही रह सकते । पापों के बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते है जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर मोर के पाने मे उसमे लिपटे हुए भजगों (सर्पो) के बन्धन ढीले पड़ जाते है। वे अपने विजेता से घबराकर अन्यत्र भाग जाने की वात सोचने लगते है । अथवा उन पुण्य पुरुषों के ध्यानादिक से आत्मा का वह निष्पाप वीतराग शद्ध स्वरूप सामने आ जाता है। उस शुद्धस्वरूप के सामने आते ही प्रात्मा में अपनी उस भली हई निजनिधि का स्मरण हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिए अनुराग जाग्रत हो जाता है, तब पाप परिणति सहज ही छूट जाती है। अतः १. प्रापत्सम्यक्त्व शुद्धि च दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शताना सप्त सयमम् ।। -उत्तर पुराण ७३-१४६ २. हृदयतिनि त्वयि विभो ! शिथलीभवन्ति, जन्तोः क्षरणेण निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजगममया इव मध्यभाग= मभ्यागते वन शिखण्डिनि चन्दनस्य ।। -कल्याण मन्दिर स्तोत्र
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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