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________________ आचार्य समन्तभद्र जिन पवित्रात्माओं में वह शुद्ध स्वरूप पूर्णतः विकसित हुआ है, उनकी उपासना करता हुआ भव्य जीव अपने में उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करनके लिए उसी तरह समर्थ होता है, जिस तरह तैलादिविभूषित वत्ती दीपक की उपासना करती हुई उसमें तन्मय हो जाती है-वह स्वय दीपक बनकर जगमगा उठती है। यह सब उस भक्तितयोग का ही माहात्म्य है। भक्त के दो रूप है सकामाभक्ति और निष्कामाभक्ति। सकामा भक्ति संसार के ऐहिक फलों की वाछा को लिए हए होती है । वह ससार तक ही सीमित रखती है। यद्यपि वर्तमान में उसमें कितना ही विकार आगया है । लोग उस व्यक्ति के मौलिक रहस्य को भूलगए है, और जिनेन्द्र मुद्रा के समक्ष लौकिक एव सासारिक कार्यो की याचना करने लगे है । वहा अज्ञजन भक्ति के गुणानुगग मे च्यूत होकर ससार के लौकिक कार्यों की प्राप्ति के लिये भक्ति करते देखे जाते है। किन्तु निष्कामाभक्ति में किसी प्रकार की चाह या अभिलापा नही होती, वह अत्यन्त विशुद्ध परिणामों की जनक है। उससे कर्म निर्जरा होता है, और आत्मा उसमे अपनी स्वात्मस्थिति को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है । अत निष्कामा भक्ति भव-समुद्र से पार उतारने में निमित्त होती है। शुभाशुभ भावो की तरतमता और कपायादि परिणामो की तीव्रता मन्दतादि के कारण कर्म प्रकृतियों में बराबर संक्रमण होता रहता है। जिस समय कर्म प्रकृतियो के उदय की प्रवलता होतो है उस समय प्रायः उनके अनुरूप ही कार्य सम्पन्न होता है। फिर भी वीतरागदेव की उपासना के समय उनके पुण्यगुणो का प्रेम पूर्वक स्मरण और चिन्तन उनमें अनुगग बढाने मे शुभपरिणामों की उत्पत्ति होती है जिससे पाप परिणति छूटती है ओर पुण्य परिणति उसका स्थान ले लेती है, इससे पाप प्रकृतियों का रस सूख जाता है और पुण्य प्रकृतियो का रस बढ़ जाता है । पुण्य प्रकृतियो के रस में अभिवृद्धि होने से अन्तरायकर्म जो मूल पाप प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करती है-- उन्हें नहीं होने देती- वह भग्नरस होकर निर्बल हो जाती है, फिर वह हमारे इप्ट कार्यो में बाधा पहुचाने में समर्थ नही होती । तव हमारे लोकिक कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते है। जैसा कि तत्वार्थश्लोकवार्तिक मे उद्धत निम्न पद्य से स्पष्ट है : "नेष्ट विहन्तुं शुभभाव-भग्न-रस प्रकर्षः प्रभुरन्तरायः। तत्कामचारेण गुणानुरागन्नुत्यादिरिष्टार्थ कदा दादेः॥" अतएव वीतरागदेव की निर्दोप भक्ति अमित फल को देने वाली है इसमें कोई बाधा नही आती। यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती का अगरूप है। इसमें वपभादि चतूविशति तीर्थकरो को–अलकृत भाषा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्यास अलकार को विशेषता को लिये हुए है। कही इलोक के एक चरण को उलटकर रख देने में दूसरा चरण बन जाता है। और पूर्वार्ध को उलटकर रखदेने मे उन गर्ध. प्रोर समचे श्लोक को उलट कर रखने से दुमरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है, इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे है, जो एक से अधिक अलकारो को लिये हुए है। और कुछ ऐसे भी पद्य हे, जो दो-दो अक्षरों से वने हैं-दो व्यजनाक्षरो मे ही जिनके शरीर की सृष्टि हुई है । स्तुतिविद्या का १४वा पद्य ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद निम्न प्रकार के एक एक अक्षर से बना है। येया याया यये याय नानानना ननानन । ममा ममा ममा मामिता तती तिततीतितः॥ यह ग्रन्थ कितना महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के–'घन-कठिन-घाति कर्मेन्धन दहन समर्था', वाक्य से जाना जाता है जिसमें घने कठोर घातिया कर्मरूपी ईन्धन को भस्म करने वाली समर्थ अग्नि बतलाया है। युक्त्यनुशासन प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन है। यह ६४ पद्यों की एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है। यद्यपि प्राचार्य समन्तभद्र ने ग्रन्थ के आदि और अन्त के पद्यों में युक्त्यनुशासन का कोई नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु १. देखो, ५१, ५२ और ५५वॉ पद्य ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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